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कहान जैन शास्त्रमाला]
जीव-अधिकार
[उपजाति] आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम्। विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति।।१०।।
[हरिगीत] परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अनत विमुक्त है। संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है।। जो एक है परिपूर्ण है- ऐसे निजात्मस्वभाव को। करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय।।१०।।
खंडान्वय सहित अर्थः- “शुद्धनयः अभ्युदेति'' [शुद्धनयः ] निरुपाधि जीववस्तुस्वरूपका उपदेश [अभ्युदेति] प्रगट होता है। क्या करता हुआ प्रगट होता है ? "एकम् प्रकाशयन्'' [ एकम् ] शुद्धस्वरूप जीववस्तुको [प्रकाशयन् ] निरूपण करता हुआ। कैसा है शुद्ध जीवस्वरूप ? "आद्यन्तविमुक्तम्'' [ आद्यन्त] समस्त पिछले और आगामी कालसे [ विमुक्तम्] रहित है। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध जीववस्तुकी आदि भी नहीं है, अंत भी नहीं है। जो ऐसे स्वरूपको सूचित करता है उसका नाम शुद्धनय है। पुन: कैसी है जीववस्तु ? "विलीनसंकल्पविकल्पजालं'' [विलीन] विलयको प्राप्त हो गया है [ संकल्प] रागादि परिणाम और [विकल्प] अनेक नयविकल्परूप ज्ञानकी पर्याय जिसके ऐसी है। भावार्थ इस प्रकार है कि समस्त संकल्प-विकल्पसे रहित वस्तुस्वरूपका अनुभव सम्यक्त्व है। पुन: कैसी है शुद्ध जीववस्तु ? “परभावभिन्नम्'' रागादि भावोंसे भिन्न है। और कैसी है ? "आपूर्णम्' अपने गुणोंसे परिपूर्ण है। और कैसी है? "आत्मस्वभावं'' आत्माका निज भाव है।। १० ।।
[ मालिनी] न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्। अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम्।।११।।
[हरिगीत] पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव है।। जो हैं प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो।।११।।
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