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साध्य - साधक-अधिकार
[ वसन्ततिलका ]
नैकान्तसंगतदृशा स्वयमेव वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः। स्याद्वादशुद्धिमधिकामधिगम्य सन्तो
कहान जैन शास्त्रमाला ]
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः।। २-२६५।।
[ रोला ] अनेकान्त की दिव्यदृष्टि से स्वयं देखते। वस्तुतत्त्व की उक्त व्यवस्था अरे सन्तजन।। स्याद्वाद की अधिकाधिक शुद्धि को लख अर । नहीं लांघकर जिननीति को ज्ञानी होते ।।२६५।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- '' सन्तः इति ज्ञानीभवन्ति ' [ सन्तः ] सम्यग्दृष्टि जीव [ इति ] इस प्रकार [ज्ञानीभवन्ति ] अनादि कालसे कर्मबनध संयुक्त थे साम्प्रत सकल कर्मोंका विनाश कर मोक्षपदको प्राप्त होते हैं। कैसे हैं सन्त ? ' जिननीतिमलंघयन्तः ' ' [ जिन ] केवलीका [नीतिम् ] कहा हुआ जो मार्ग [ अलंघयन्तः ] उसी मार्ग पर चलते हैं, उस मागको उल्लंघन कर अन्य मार्ग पर नहीं चलते हैं। कैसा करके ? " अधिकाम् स्याद्वादशुद्धिम् अधिगम्य'' [ अधिकाम् ] प्रमाण है ऐसा जो [ स्याद्वादशुद्धिम् ] अनेकान्तरूप वस्तुका उपदेश उससे हुआ है ज्ञानका निर्मलपना उसकी [ अधिगम्य ] सहायता पाकर । कैसे हैं सन्त ? ' वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिम् स्वयम् एव प्रविलोकयन्तः' [वस्तु] जीवद्रव्यका [ तत्त्व ] जैसा है स्वरूप उसके [ व्यवस्थितिम् ] द्रव्यरूप तथा पर्यायरूपको [ स्वयम् एव प्रविलोकयन्तः ] साक्षात् प्रत्यक्षरूपसे देखते हैं। कैसे नेत्रसे देखते हैं ? ‘नैकान्तसङ्गतदृशा’’[ नैकान्त ] स्याद्वादसे [ सङ्गत ] मिले हुए [ दृशा ] लोचनसे।। २-२६५।।
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