SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] स्याद्वाद-अधिकार २३१ ज्ञान। ये समस्त हैं ज्ञानकी पर्याय, उन पर्यायोंको ज्ञानका अस्तित्व मानता है मिथ्यादृष्टि जीव। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि ज्ञेयकी आकृतिरूप परिणमती हुई जितनी ज्ञानकी पर्याय है उनसे ज्ञानका अस्तित्व नहीं है ऐसा कहते हैं- 'पशुः नश्यति'' [पशुः] एकान्तवादी [नश्यति] वस्तुस्वरूपको साधनेसे भ्रष्ट है। कैसा है एकान्तवादी ? "ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा बहिः भ्राम्यन्'' [ज्ञेय] समस्त द्रव्यरूप [आलम्बन] ज्ञेयके अवसर ज्ञानकी सत्ता ऐसा निश्चयरूप [ लालसेन] है अभिप्राय जिसका ऐसे [ मनसा] मनसे [बहिः भ्राम्यन्] स्वरूपसे बाहर उत्पन्न हुआ है भ्रम जिसको ऐसा है। और कैसा है ? "अर्थालम्बनकाले ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् एव'' [अर्थ] जीवादि समस्त ज्ञेयवस्तुको [आलम्बन] जानते [काले] समय ही [ज्ञानस्य] ज्ञानमात्र वस्तुकी [ सत्त्वं] सत्ता है[ कलयन्] ऐसा अनुभव करता है। [ एव] ऐसा ही है। उसके प्रति स्याद्वादी वस्तुकी सिद्धि करता है - "पुनः स्याद्वादवेदी तिष्ठति'' [ पुनः] एकान्तवादी जैसा मानता है वैसा नहीं है, जैसा स्याद्वादी मानता है वैसा है। [स्याद्वादवेदी] अनेकान्तवादी [ तिष्ठति] वस्तुस्वरूप साधनेके लिए समर्थ है। कैसा है स्याद्वादी ? "अस्य परकालतः नास्तित्वं कलयन्'' [अस्य] ज्ञानमात्र जीववस्तुका [परकालतः] ज्ञेयावस्थाके जानपनेसे [नास्तित्वं] नास्तिपना है ऐसी [कलयन्] प्रतीति करता है स्याद्वादी। और कैसा है ? 'आत्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन'' [आत्म] ज्ञानमात्र जीववस्तुमें [निखात] अनादिसे एक वस्तुरूप [नित्य] अविनश्वर [ सहज ] उपाय बिना द्रव्यके स्वभावरूप ऐसी जो [ ज्ञान] जानपनारूप शक्ति तद्रूप [ एकपुञ्जीभवन् ] मैं जीववस्तु हूँ, अविनश्वर ज्ञानस्वरूप हूँ ऐसा अनुभव करता हुआ। ऐसा है स्याद्वादी। ।११-२५७ ।। [शार्दूलविक्रीडित] विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः। वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन् स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः।। १२-२५८ ।। [हरिगीत परभाव से निजभाव का अस्तित्व माने अज्ञजन। पर में रमें जग में भ्रमे निज आतमा को भूलकर।। पर भिन्न हो परभाव से ज्ञानी रमें निज भाव में। बस इसलिए इस लोक में वे सदाही जीवित रहें।।२५८ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है कि वस्तुको पर्यायमात्र मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानता है, इसलिए जितनी समस्त ज्ञेय वस्तुओंके जितने हैं शक्तिरूप स्वभाव उनको जानता है ज्ञान। जानता हुआ उनकी आकृतिरूप परिणमता है। इसलिए ज्ञेयकी शक्तिकी आकृतिरूप हैं Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy