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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] स्याद्वाद-अधिकार २२७ ज्ञेयका स्वरूप, उसमें [ परद्रव्यात्मना] अनुभवता है ज्ञानवस्तुसे भिन्नपना, उसके कारण [ नास्तितां जानन् ] नास्तिपना अनुभवता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि समस्त ज्ञेय ज्ञानमें उद्दीपित होता है परन्तु ज्ञेयरूप है, ज्ञानरूप नहीं हुआ है। कैसा है स्याद्वादी ? ''निर्मलशुद्धबोधमहिमा' [निर्मल] मिथ्यादोषसे रहित तथा [शुद्ध ] रागादि अशुद्ध परिणतिसे रहित ऐसा जो [बोध ] अनुभवज्ञान उससे है [ महिमा] प्रताप जिसका ऐसा है।। ७-२५३ ।। [शार्दूलविक्रीडित] भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठ: सदा सीदत्येव बहि: पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः । स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिर्भवन।।८-२५४ ।। [हरिगीत] परक्षेत्रव्यापीज्ञेय-ज्ञायक आतमा परक्षेत्रमय। यह मानकर निजक्षेत्र का अपलाप करते अज्ञजन।। जो जानकर परक्षेत्र को परक्षेत्रमय होते नहीं। वे स्याद्वादी निजरसी निजक्षेत्र में जीवित रहें।।२५४।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है कि जो वस्तुको पर्यायरूप मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानता है, इसलिए जितना समस्त वस्तुका है आधारभूत प्रदेशपुंज, उसको जानता है ज्ञान।जानता हुआ उसकी आकृतिरूप परिणमता है ज्ञान, इसका नाम परक्षेत्र है। उस क्षेत्रको ज्ञानका क्षेत्र मानता है। एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव उस क्षेत्रसे सर्वथा भिन्न है चैतन्यप्रदेशमात्र ज्ञानका क्षेत्र, उसे नहीं मानता है। उसके प्रति समाधान ऐसा है कि ज्ञानवस्तु परक्षेत्रको जानती है परन्तु अपने क्षेत्ररूप है। परका क्षेत्र ज्ञानका क्षेत्र नहीं है। वही कहते हैं-"पशुः सीदति एव''[पशु: ] एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव [ सीदति] ओलोंके समान गलता है। ज्ञानमात्र जीववस्तु है ऐसा नहीं साध सकता है। [ एव ] निश्चयसे ऐसा ही है। कैसा है एकान्तवादी ? “भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठ:'' [भिन्नक्षेत्र] अपने चैतन्यप्रदेशसे अन्य है जो समस्त द्रव्योंका प्रदेशपुंज उससे [ निषण्ण] उसकी आकृतिरूप परिणमा है ऐसा जो [बोध्यनियतव्यापार] ज्ञेय-ज्ञायकका अवश्य सम्बन्ध, उसमें [ निष्ठ:] निष्ठ है अर्थात् एतावन्मात्रको जानता है ज्ञानका क्षेत्र, ऐसा है एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव। “सदा'' अनादि कालसे ऐसा ही है। और कैसा है मिथ्यादृष्टि जीव ? "अभितः बहिः पतन्तम् पुमांसं पश्यन्' [ अभितः] मूलसे लेकर [बहिः पतन्तम्] परक्षेत्ररूप परिणमा है ऐसे [ पुमांसं] जीववस्तुको [ पश्यन् ] मानता है -अनुभवता है, ऐसा है मिथ्यादृष्टि जीव। "पुनः स्याद्वादवेदी तिष्ठति'' [ पुनः] एकान्तवादी जैसा कहता है वैसा नहीं है किन्तु [ स्याद्वादवेदी ] अनेकान्तवादी [ तिष्ठति] जैसा मानता है वैसी वस्तु है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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