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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[ तत्त्व ] जीवका शुद्ध स्वरूप उसका [ अवबोध ] प्रत्यक्षपने अनुभव उससे [च्युताः] अनादि कालसे भ्रष्ट हैं। द्रव्यक्रियाको करते हुए आपको कैसे मानते हैं ? "संवृतिपथप्रस्थापितेन आत्मना'' [संवृतिपथ] मोक्षमार्गमें [प्रस्थापितेन आत्मना] अपने आप को स्थापित किया है अर्थात् मैं मोक्षमार्गमें चढ़ा हूँ ऐसा मानते हैं, ऐसा अभिप्राय रखकर क्रिया करते हैं। क्या करके ? "एनं परिहृत्य'' शुद्ध चैतन्यस्वरूपका अनुभव छोड़कर। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध स्वरूपका अनुभव मोक्षमार्ग है ऐसी प्रतीति नहीं करते हैं।। ४९-२४१।।
[वियोगिनी] व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम्।। ५०-२४२।।
[हरिगीत] तुष माँहि मोहित जगतजन ज्यों एक तुषही जानते। वे मूढ़ तुष संग्रह करें तन्दुल नहीं पहिचानते।। व्यवहारमोहित मूढ़ त्यों व्यवहार को ही जानते। आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते।।२४२।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''जनाः'' कोई ऐसे हैं मिथ्यादृष्टि जीव जो ‘परमार्थं '' शुद्ध ज्ञान मोक्षमार्ग है ऐसी प्रतीतिको ''नो कलयन्ति'' नहीं अनुभवते हैं। कैसे हैं ? ''व्यवहारविमूढदृष्टय' [व्यवहार] द्रव्यक्रियामात्र उसमें [ विमूढ ] ‘क्रिया मोक्षका मार्ग है' इस प्रकार मूर्खपनेरूप झूठी है [दृष्टयः] प्रतीति जिनकी, ऐसे हैं। दृष्टान्त कहते हैं- जिस प्रकार “लोके' 'वर्तमान कर्मभूमिमें
"तुषबोधविमुग्धबुद्धयः जनाः'' [तुष] धानके उपरके तुषमात्रके [बोध] ज्ञानसे-ऐसे ही मिथ्याज्ञानसे [ विमुग्ध] विकल हुई है [ बुद्धयः] मति जिनकी, ऐसे हैं [ जनाः] कितनेही मूर्ख लोग। "इह'' वस्तु जैसी है वैसी ही है तथापि अज्ञानपनेसे 'तुषं कलयन्ति'' तुषको अंगीकार करते हैं, "तन्दुलम् न कलयन्ति'' चावलके मर्मको नहीं प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार जो कोई क्रियामात्रको मोक्षमार्ग जानते हैं, आत्माके अनुभवसे शून्य हैं, वे भी ऐसे ही जानने।। ५०-२४२।।
[स्वागता] द्रव्यलिङ्गममकारमीलितै-दृश्यते समयसार एव न। द्रव्यलिङ्गमिह यत्किलान्यतोज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतो।। ५१-२४३।।
[हरिगीत] यद्यपि परद्रव्य हैं द्रव्यलिङ्ग फिर भी अज्ञजन। बस उसी में ममता धरें द्रव्यलिङ्ग मोहित अन्धजन।। देखें नहीं जाने नहीं सुखमय समय के सार को। बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को।।२४३।।
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