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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२०३
"त्रिकाल विषयं'' एक अशुद्ध परिणति अतीत कालके विकल्परूप है जो मैं ऐसा किया ऐसा भोगा इत्यादिरूप है। एक अशुद्ध परिणति आगामी कालके विषयरूप है जो ऐसा करूँगा ऐसा करनेसे ऐसा होगा इत्यादिरूप है। एक अशुद्ध परिणति वर्तमान विषयरूप है जो ' मैं देव , मैं राजा, मेरी ऐसी सामग्री, मुझे ऐसा सुख अथवा दुःख' इत्यादिरूप है। एक ऐसा भी विकल्प है कि “कृतिकारितानुमननैः'' [ कृत] जो कुछ आपकी है हिंसादि क्रिया [कारित] जो अन्य जीवको उपदेश देकर करवाई हो [अनुमननै:] जो किसीने सहज ही की हुई क्रियासे सुख मानना। तथा एक ऐसा भी विकल्प है जो "मनोवचनकायैः'' मनसे चिन्तवन करना, वचनसे बोलना, शरीरसे प्रत्यक्ष करना। ऐसे विकल्पोंको परस्पर फैलानेपर उनचास भेद होते हैं, वे समस्त जीवका स्वरूप नहीं है, पुद्गलकर्मके उदयसे होते हैं।। ३३–२२५ ।।
भूतकालका विचार इस प्रकार करता है -
यदहमकार्षं यदचीकरं यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा न वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति।
___ खंडान्वय सहित अर्थ:- “तत् दुष्कृतं मे मिथ्या भवतु'' [तत् दुष्कृतम्] राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणति अथवा ज्ञानावरणादि कर्मपिण्ड [मे मिथ्या भवतु] स्वरूपसे भ्रष्ट होते हुए मैने आपस्वरूप अनुभवा सो अज्ञानपना हुआ। सांप्रत [अब ] ऐसा अज्ञानपना जाओ। 'मैं शुद्धस्वरूप' ऐसा अनुभव होओ। पापके बहुत भेद है, उन्हें कहते हैं-"यत् अहम् अकार्ष' [ यत् ] जो पाप [अहम् अकार्षं ] मैने किया है। “यत् अहम् अचीकरं'' जो पाप अन्यको उपदेश देकर कराया हैं। तथा " अन्यं कुर्वन्तम् अपि समन्वज्ञासिषं'' सहज ही किया है अन्य किसीने, उसमें मैने सुख माना होवे "मनसा'' मनसे, "वाचा'' वचनसे, "कायेन'' शरीरसे। यह सब जीवका स्वरूप नहीं है। इसलिए मैं तो स्वामी नहीं हूँ। इसका स्वामी तो पुद्गलकर्म है। ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अनुभवता है।
[आर्या] मोहाद्यदहमकार्षं समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।। ३४-२२६ ।।
[रोला] मोहभाव से भूतकाल में कर्म किये जो, उन सबका ही प्रतिक्रमण करके अब मैं तो। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के, शुद्ध बुद्ध चैतन्यपरम निष्कर्म आत्म में ।।२२६ ।।
* श्री समयसारकी आत्मख्याति-टीकाका यह भाग गद्यरूप है, पद्यरूप अर्थात् कलशरूप नहीं है, इसलिए इसको पद्यांक नहीं दिया गया है।
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