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कहान जैन शास्त्रमाला]
सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार
२०१
ज्ञानमात्र स्वरूप था वैसा ही है। ज्ञेयको जानते हुए विकार कुछ नहीं है ऐसा वस्तुका स्वरूप जिनको नहीं भासित होता वे मिथ्यादृष्टि हैं।। ३०-२२२।।
[शार्दूलविक्रीडित] रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृश: पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य सञ्चेतनाम्।।३१-२२३।।
[रोला] राग-द्वेष से रहित भूत-भावी कर्मों से मुक्त, स्वयं को वे नित ही अनुभव करते हैं। और स्वयं में रत रह ज्ञानमयी चेतनता, को धारण करनिज में नित्य मगन रहते हैं।।२२३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "नित्यं स्वभावस्पृशः ज्ञानस्य सञ्चेतनां विन्दन्ति'' [नित्यं स्वभावस्पृशः ] निरन्तर शुद्ध स्वरूपका अनुभव है जिन्हें ऐसे हैं जो सम्यग्दृष्टि जीव, वे [ ज्ञानस्य सञ्चेतनां] राग-द्वेष-मोहसे रहित शुद्ध ज्ञानमात्र वस्तुको [विन्दन्ति] प्राप्त करते हैं-आस्वादते हैं। कैसी है ज्ञानचेतना ? ''स्वरसाभिषिक्तभुवनां'' अपने आत्मीक रससे जगतको मानो सिञ्चन करती है। और कैसी है ? ' 'चञ्चच्चिदर्चिर्मयीं'' [चञ्चत् ] सकल ज्ञेयको जाननेमें समर्थ ऐसा जो [चिदर्चिः] चैतन्यप्रकाश, ऐसा है [ मयीं] सर्वस्व जिसका , ऐसी है। ऐसी चेतनाका जो कारण है उसे कहते हैं-"दूरारूढचरित्रवैभवबलात्' [ दूर] अति गाढ़-दृढ़ [आरूढ ] प्रगट हुआ जो [चरित्र] राग द्वेष अशुद्ध परिणतिसे रहित जीवका जो चारित्रगुण, उसके [वैभव प्रतापकी [बलात्] सामर्थ्यसे। भावार्थ इस प्रकार है कि शुद्ध चारित्र तथा शुद्ध ज्ञानचेतनाको एकवस्तुपना है। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि जीव ? " रागद्वेषविभावमुक्तमहसः'' [ रागद्वेष ] जितनी अशुद्ध परिणति है उसरूप जो [विभाव] जीवका विकारभाव, उससे [ मुक्त ] रहित हुआ है [महसः] शुद्ध ज्ञान जिनका, ऐसे हैं। और कैसे हैं ? ''पूर्वागामिसमस्तकर्मविकलाः'' [ पूर्व] जितना अतीत काल [आगामि] जितना अनागत काल तत्सम्बन्धी [ समस्त ] नाना प्रकार असंख्यात लोकमात्र [कर्म] रागादिरूप अथवा सुख-दुःखरूप अशुद्धचेतना विकल्प, उनसे [विकलाः] सर्वथा रहित हैं। और कैसे हैं ? "तदात्वोदयात् भिन्नाः'' [ तदात्वोदयात् ] वर्तमान कालमें आये हुए उदयसे हुई है जो शरीर-सुख-दुःखरूप विषय भोगसामग्री इत्यादि, उससे [ भिन्नाः] परम उदासीन हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव त्रिकालसम्बन्धी कर्मकी उदयसामग्रीसे विरक्त होकर शुद्ध चेतनाको प्राप्त करते हैं - आस्वादते हैं। ३१-२२३।।
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