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मोक्ष अधिकार
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[ शिखरिणी ]
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बन्धपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्। इदानीमुन्मज्जत्सहजपरमानन्दसरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।। १-१८० ।।
[ हरिगीत ]
निज आतमा अर बंध को कर पृथक् प्रज्ञाछैनि से। सद्ज्ञानमय निज आत्म को कर सरस परमानन्द से ।। उत्कृष्ट है कृतकृत्य है परि पूर्णता को प्राप्त है । प्रगटित हुई वह ज्ञानज्योति जो स्वयं में व्याप्त है । । १८० ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- " इदानीं पूर्णं ज्ञानं विजयते'' [ इदानीम् ] यहाँ से लेकर [ पूर्णं ज्ञानं ] समस्त आवरणका विनाश होनेपर होता है जो शुद्ध वस्तुका प्रकाश वह [ विजयते ] आगामी अनन्त काल पर्यन्त उसी रूप रहता है, अन्यथा नहीं होता। कैसा है शुद्ध ज्ञान ?
कृतसकलकृत्यं '' [ कृत ] किया है [ सकलकृत्यं ] करने योग्य समस्त कर्मका विनाश जिसने ऐसा है । और कैसा है ? " उन्मज्जुत्सहजपरमानन्दसरसं '' [ उन्मज्जत् ] अनादि कालसे गया था सो प्रगट हुआ है ऐसा जो [ सहजपरमानन्द ] द्रव्यके स्वभावरूपसे परिणमनेवाला अनाकुलत्वलक्षण अतीन्द्रिय सुख, उससे [ सरसं ] संयुक्त है। भावार्थ इस प्रकार है कि मोक्षका फल अतीन्द्रिय सुख है। क्या करता हुआ ज्ञान प्रगट होता है ? ' पुरुषम् साक्षात् मोक्षं नयत् '' [ पुरुषम् ] जीवद्रव्यको [ साक्षात् मोक्षं ] सकल कर्मका विनाश होनेपर शुद्धत्व - अवस्थाके प्रगटपनेरूप [ नयत् ] परिणमाता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है कि यहाँ से आरम्भकर सकल कर्मक्षयलक्षण मोक्षके स्वरूपका निरूपण किया जाता है। और कैसा है ? ' परं '' उत्कृष्ट है। और कैसा है ? ' उपलम्भैकनियतम्'' एक निश्चयस्वभावको प्राप्त है। क्या करता हुआ आत्मा मुक्त होता है ? ' बन्ध-पूरुषौ द्विधाकृत्य' [ बन्ध ] द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मरूप उपाधि [ पुरुषौ ] शुद्ध जीवद्रव्य इनको [ द्विधाकृत्य ] 'सर्व बन्ध हेय, शुद्ध जीव उपादेय ऐसी भेदज्ञानरूप प्रतीति उत्पन्न कराकर । ऐसी प्रतीति जिस प्रकार उत्पन्न होती है उस प्रकार कहते हैं- ' ' प्रज्ञाक्रकचदलनात् ' [ प्रज्ञा ] शुद्धज्ञानमात्र जीवद्रव्य, अशुद्ध रागादि उपाधि बन्ध— ऐसी भेदज्ञानरूपी बुद्धि, ऐसी जो [ क्रकच ] करोंत, उसके द्वारा [ दलनात् ] निरन्तर अनुभवका अभ्यास करनेसे ।
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