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बंध-अधिकार
कहान जैन शास्त्रमाला ]
[ अनेककरणानि ] पाँच इन्द्रियां - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, छठा मन [ न बन्धकृत् ] ये भी बन्धके कर्ता नहीं है। समाधान इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके पाँच इन्द्रियाँ है, मन भी हैं। उनके द्वारा पुद्गलद्रव्यके गुणका ज्ञायक भी है। जो पाँच इन्द्रिय और मनमात्रसे कर्मका बन्ध
तो सम्यग्दृष्टि जीवको भी बन्ध सिद्ध होता । भावार्थ इस प्रकार है कि जो रागादि अशुद्ध भाव है तो कर्मका बन्ध है, तो फिर पाँच इन्द्रिय और छठे मनका सहारा कुछ नहीं है; जो रागादि अशुद्ध भाव नहीं है तो कर्मका बन्ध नहीं है, तो फिर पाँच इन्द्रिय और छठे मनका सहारा कुछ नहीं है। [चित् ] जीवके संबंध सहित एकेन्द्रियादि शरीर [ अचित् ] जीवके संबंध रहित पाषाण, लोह, माटी उनका [ वध ] मूल से विनाश अथवा बाधा - पीड़ा [ न बन्धकृत् ] वह भी बन्धका कर्ता नहीं है। समाधान इस प्रकार है कि जो कोई महामुनीश्वर भावलिंगी मार्ग चलता है, दैवसंयोगसे सूक्ष्म जीवोंको बाधा होती है सो जो जीवघातमात्रसे बन्ध होता तो मुनीश्वरनके कर्मबंध होता । भावार्थ इस प्रकार है कि जो रागादि अशुद्ध परिणाम है तो कर्मका बन्ध है, तो फिर जीवघातका सहारा कुछ नहीं है । जो रागादि अशुद्ध भाव नहीं है तो कर्मका बन्ध नहीं है, तो फिर जीवघातका सहारा कुछ नहीं है ।। २ – १६४।।
[ शार्दूलविक्रीडित ]
लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत्। रागादिनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवेत् केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम्।। ३-१६५ ।।
[ हरिगीत ]
भले ही सब कर्मपुदगल् से भरा यह लोक हो ।
भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो ।।
चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो । फिर भी नहीं रागादि विरहित ज्ञानियों को बन्ध हो । । १६५ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अहो अयम् सम्यग्दृगात्मा कुतः अपि ध्रुवम् एव बन्धं न उपैति '' [ अहो ] भो भव्यजीव ! [ अयम् सम्यग्दृगात्मा ] यह शुद्ध स्वरूपका अनुभवनशील सम्यग्दृष्टि जीव [कुतः अपि ] भोग सामग्रीको भोगते हुए अथवा बिना भोगते हुए [ ध्रुवम् ] अवश्यकर [ एव ] निश्चयसे [बन्धं न उपैति ] ज्ञानावरणादि कर्मबन्धको नहीं करता है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? '' रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् '' [ रागादीन् ] अशुद्धरूप विभावपरिणामोंको [ उपयोगभूमिम् ] चेतनामात्र गुणके प्रति [ अनयन् ] न परिणमाता हुआ । '' केवलं ज्ञानं भवेत् '' मात्र ज्ञानस्वरूप रहता है। भावार्थ इस प्रकार है सम्यग्दृष्टि जीवको बाह्य आभ्यंतर सामग्री जैसी थी वैसी ही है, परंतु रागादि अशुद्धरूप विभाव परिणति नहीं है, इसलिए ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध नहीं है। ततः लोक: कर्म अस्तु च तत् परिस्पंदात्मकं कर्म अस्तु अस्मिन् तानि करणानि सन्तु च तत् चिदचिद्व्यापादनं अस्तु'' [ ततः ] तिस कारणसे [ लोक:कर्म अस्तु ] कार्मणवर्गणासे भरा है जो समस्त लोकाकाश सो तो जैसा है वैसा ही रहो।
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