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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[शार्दूलविक्रीडित] स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्ति: स्वरूपे न यत् शक्तः कोऽपि पर: प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तगीः कुतो ज्ञानिनो निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। २६-१५८ ।।
[हरिगीत] कोई किसी का कुछ करे यह बात संभव है नहीं। सब हैं सुरक्षित स्वयं में अगुप्ति का भय है नहीं।। जब जानते यह ज्ञानीजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत् निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें।।१५८ ।।
खंडान्वय सहित अर्थः- “सः ज्ञानं सदा विन्दति'' [ सः] सम्यग्दृष्टि जीव [ ज्ञानं] शुद्ध चैतन्यवस्तुको [ सदा विन्दति] निरंतर अनुभवता है - आस्वादता है। कैसा है ज्ञान ? ''स्वयं' अनादिसिद्ध है। और कैसा है ? "सहजं'' शुद्ध वस्तुस्वरूप है। और कैसा है ? "सततं'' अखंडधारा प्रवाहरूप है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? "निःशंकः'' 'वस्तुको जतनसे रखा जाय, नहीं तो कोई चुरा लेगा ऐसा जो अगुप्तिभय उससे रहित है। "अतः अस्य काचन अगुप्तिः एव न भवेत् ज्ञानिनः तद्भी: कुतः'' [अतः] इस कारणसे [ अस्य] शुद्ध जीवके [ काचन अगुप्तिः] किसी प्रकारका अगुप्तिपना [ न भवेत् ] नहीं है, [ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [तगीः] 'मेरा कुछ कोई छीन न लेवे ऐसा अगुप्तिभय [ कुतः] कहाँसे होवे ? अपितु नहीं होता। किस कारणसे ? “किल वस्तुनः स्वरूपं परमा गुप्तिः अस्ति'' [ किल] निश्चयसे [वस्तुनः] जो कोई द्रव्य है उसका [ स्वरूपं] जो कुछ निज लक्षण है वह [परमा गुप्तिः अस्ति] सर्वथा प्रकार गुप्त है। किस कारणसे ? "यत् स्वरूपे क: अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्तः'' [यत्] जिस कारणसे [ स्वरूपे] वस्तुके सत्त्वमें [क: अपि पर:] कोई अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यमें [ प्रवेष्टुम् ] संक्रमण को [न शक्त:] समर्थ नहीं है। "नु: ज्ञानं स्वरूपं च'' [नु:] आत्मद्रव्यका [ ज्ञानं स्वरूपं] चैतन्य स्वरूप है। [च] वही ज्ञानस्वरूप कैसा है ? "अकृतं'' किसीने किया नहीं, कोई हर सकता नहीं। भावार्थ इस प्रकार है कि सब जीवोंको ऐसा भय होता है कि 'मेरा कुछ कोई चुरा लेगा, छीन लेगा सो ऐसा भय सम्यग्दृष्टिको नहीं होता। जिस कारणसे सम्यग्दृष्टि ऐसा अनुभव करता है कि मेरा तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, उसको तो कोई चुरा सकता नहीं, छीन सकता नहीं; वस्तुका स्वरूप अनादिनिधन है।। २६-१५८ ।।
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