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शुद्धात्मानुभव किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण कलश १३ की टीका में पढ़िये----
‘निरूपाधिरूप से जीव द्रव्य जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आवे इसका नाम शुद्धात्मानयभव है।'
द्वादशांगज्ञान और शुद्धात्मानुभव में क्या अंतर है इसका जिन सुन्दर शब्दोंमें कविवर ने कलश १४ की टीका में स्पष्टीकरण किया है वह ज्ञातव्य है----
'इस प्रसंग में और भी संशय होता है कि द्वादशांगज्ञान कुछ अपूर्व लब्धि है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशांगज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, इसलिये शुद्धात्मानुभूति के होने पर शास्त्र पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।'
मोक्ष जाने में द्रव्यान्तर का सहारा क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण कविवर नेकलश १५ की टीकामें धन शब्दों में किया है----
‘एक ही जीव द्रव्य कारण रूप भी अपने में ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपने में परिणमता है। इस कारण मोक्ष जाने में किसी द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिये शुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिये।'
शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है मात्र ऐसा जानना कार्यकारी नहीं। तो क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश २३ की टीका में पढ़िये ----
'शरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। शरीर से भिन्न तो पुरुष है ऐसा जानपना ऐसी प्रतीति मिथ्यादृष्टि जीव के भी होती है पर साध्यसिद्धि तो कुछ नहीं। जब जीव द्रव्यका द्रव्य-गुणपर्यायस्वरूप प्रत्यक्ष आस्वाद आता है तव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, सकल कर्मक्ष्य मोक्ष लक्षण भी है।'
जो शरीर सुख-दुःख राग-द्वेष-मोह की त्यागबुद्धिको कारण और चिद्रूप आत्मानुभवको कार्य मानते हैं उनको समझाते हुए कविवर कलश २९ में क्या कहते हैं यह उन्हीं के सम्पर्क शब्दों में पढ़िये ----
'कोई जानेगा कि जितना भी शरीर, सुख, दुःख, राग, द्वेष, मोह है उसकी त्यागबुद्धि कुछ अन्य है---कारणरूप है। तथा शुद्ध चिद्रूपमात्रका अनुभव कुछ अन्य है ---कार्यरूप है। उसके प्रति उत्तर इसप्रकार है कि राग, द्वेष, मोह, शरीर, सुख, दुःख आदि विभाव पर्यायरूप परिणति हुए जीवका जिस काल में ऐसा अशुद्ध परिणामरूप संस्कार छूट जाता है उसी काल में इसके अनुभव है। उसका विवरण--जो शुद्धचेतनामात्र का अस्वाद आये बिना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटे बिना शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता नहीं। इसलिये जो कुछ है सो एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है।'
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