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निर्जरा अधिकार
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[ शार्दूलविक्रीडित]
रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा पर: संवरः
कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः । प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृत्तं न हि यतो रागादिभिर्मूर्च्छति।। १-१३३।।
[ हरिगीत ]
आगामी बंधन रोकने संवर सजग सबद्ध हो ।
रागादि के अवरोध से जब कमर कस के खड़ा हो ।।
अर पूर्वबद्ध करम दहन को निरजरा तैयार हो । तब ज्ञानज्योति यह अरे नित ही अमूर्छित क्यों न हो ।। १३३ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- " अधुना निर्जरा व्याजृम्भते ' [ अधुना ] यहाँसे लेकर [ निर्जरा ] पूर्वबद्ध कर्मका अकर्मरूप परिणाम [ व्याजृम्भते ] प्रगट होता है। भावार्थ इस प्रकार है निर्जराका स्वरूप जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं । निर्जरा किसके निमित्त [ किसके लिए ] है ? " तु तत् एव प्राग्बद्धं दग्धुम्'' [तु] संवरपूर्वक [ तत् ] जो ज्ञानावरणादि कर्म [ एव ] निश्चयसे [ प्राग्बद्धं ] सम्यक्त्वके नहीं होनेपर मिथ्यात्व, राग, द्वेष परिणामसे बँधा था उसको [ दग्धुम् ] जलाने के लिए । कुछ विशेष ——— संवरः स्थित:'" संवर अग्रसर हुआ है जिसका, ऐसी है निर्जरा। भावार्थ इस प्रकार है संवरपूर्वक जो निर्जरा सो निर्जरा, क्योंकि जो संवरके बिना होती है सब जीवोंको उदय देकर कर्मकी निर्जरा सो निर्जरा नहीं है । कैसा है संवर ?' रागाद्यास्रवरोधत: निजधुरां धृत्वा आगामि समस्तम् एव कर्म भरतः दूरात् निरुन्धन् '' [ रागाद्यास्रवरोधत: ] रागादि आस्रव भावोंके निरोधसे [निजधुरां ] अपने एक संवररूप पक्षको [ धृत्वा ] धरता हुआ [ आगामि ] अखंड धाराप्रवाहरूप आस्रवित होनेवाले [ समस्तम् एव कर्म] नाना प्रकारके ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय इत्यादि अनेक प्रकारके पुद्गलकर्मको [ भरतः ] अपने बड़प्पनसे [ दूरात् निरुन्धन् ] पासमें आने नहीं देता है। संवरपूर्वक निर्जरा कहनेपर जो कुछ कार्य हुआ सो कहते हैं यतः ज्ञानज्योति: अपावृत्तं रागादिभिः न मूर्च्छति'' [ यतः ] जिस निर्जरा द्वारा [ ज्ञानज्योतिः ] जीवका शुद्ध स्वरूप [अपावृत्तं ] निरावरण होता हुआ [ रागादिभि: ] अशुद्ध परिणामोंसे [ न मूर्च्छति ] अपने स्वरूपको छोड़कर रागादिरूप नहीं होता । । १ - १३३ ।।
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