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कहान जैन शास्त्रमाला ]
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आस्रव - अधिकार
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[ उपजाति ]
भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः । ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो निरास्रवो ज्ञायक एक एव ।। ३-११५ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- 'अयं ज्ञानी निरास्रवः एव [ अयं ] द्रव्यरूप विद्यमान है वह [ ज्ञानी ] सम्यग्दृष्टि जीव [ निरास्रवः एव ] आस्रवसे रहित है । भावार्थ इस प्रकार है सम्यग्दृष्टि जीवोंको नौंध कर [ समझ पूर्वक ] विचारनेपर आस्रव घटता नहीं। कैसा है ज्ञानी ? 'एक: रागादि अशुद्ध परिणामसे रहित है, शुद्धस्वरूप परिणमा है। और कैसा है ? ज्ञायक: स्वद्रव्यस्वरूप-परद्रव्यस्वरूप समस्त ज्ञेय वस्तुओंको जानने के लिए समर्थ है। भावार्थ इस प्रकार है
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ज्ञायकमात्र है, रागादि अशुद्धरूप नहीं है। और कैसा है ? '' सदा ज्ञानमयैकभाव:'' [ सदा ] सर्व काल धाराप्रवाहरूप [ ज्ञानमय ] चेतनरूप ऐसा [ एकभाव: ] एकपरिणाम जिसका, ऐसा है । भावार्थ इस प्रकार है जितने विकल्प हैं वे सब मिथ्या । ज्ञानमात्र वस्तुका स्वरूप था सो अविनश्वर रहा। निरास्रवपना सम्यग्दृष्टि जीवको जिस प्रकार घटता उस प्रकार कहते हैं - ' ' भावास्रवाभावं प्रपन्नः [भावास्रव] मिथ्यात्व राग द्वेषरूप अशुद्ध चेतनापरिणाम, उसका [ अभावं ] विनाश, उसको [ प्रपन्न:] प्राप्त हुआ है । भावार्थ इस प्रकार है अनंत कालसे लेकर जीव मिथ्यादृष्टि होता हुआ मिथ्यात्व, राग, द्वेषरूप परिणमता था, उसका नाम आस्रव है । सो तो काललब्धि प्राप्त होनेपर वही जीव सम्यक्त्वपर्यायरूप परिणमा, शुद्धतारूप परिणमा, अशुद्ध परिणाम मिटा, इसलिए भावास्रवसे तो इस प्रकार रहित हुआ। 'द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्न: ' [ द्रव्यास्रवेभ्यः ] ज्ञानावरणादि कर्मपर्यायरूप जीवके प्रदेशोंमें बेठे हैं पुद्गलपिण्ड, उनसे [ स्वत: ] स्वभावसे [ भिन्न: एव ] सर्व काल निराला ही है । भावार्थ इस प्रकार है आस्रव दो प्रकारका है। विवरण- एक द्रव्यास्रव है, एक भावास्रव है । द्रव्यास्रव कहने पर कर्मरूप बेठे हैं आत्माके प्रदेशोंमें पुद्गलपिण्ड, ऐसे द्रव्यास्रवसे जीव स्वभावही से रहित है । यद्यपि जीवके प्रदेश कर्म - पुद्गलपिण्डके प्रदेश एक ही क्षेत्रमें रहते हैं तथापि परस्पर एकद्रव्यरूप नहीं होते हैं, अपने अपने द्रव्य गुण पर्यायरूप रहते हैं। इसलिए पुद्गलपिण्डसे जीव भिन्न हैं । भावास्रव कहने पर मोह राग द्वेषरूप विभाव अशुद्ध चेतनपरिणाम सो ऐसा परिणाम यद्यपि जीवके मिथ्यादृष्टि अवस्थामें विद्यमान ही था तथापि सम्यक्त्वरूप परिणमनेपर अशुद्ध परिणाम मिटा । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव भावास्रवसे रहित है । इससे ऐसा अर्थ नीपजा कि सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव है ।। ३ – ११५ । ।
[ दोहा ]
द्रव्यास्रवसे भिन्न है भावास्रव को नाश । सदा ज्ञानमय निरास्रव ज्ञायकभाव प्रकाश ।। ११५ ।।
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