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ये तो सोचा ही नहीं हैं। इस कारण उसने अपने पति धनेश के प्रति बीमारी के समय उसकी दुव्यसनों की आदतों की चर्चा न करके सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार ही रखा और उसकी भरपूर सेवा की।
धनेश की पीड़ा में धनश्री रात-रात भर जागकर पूरा-पूरा साथ देने का प्रयास करती। जब भी धनेश को दौरा पड़ता तो तत्काल धनश्री उसकी पीठ पर हाथ फेरती, उसके आँसू पोंछती। अपनी गोद में उसका सिर रखकर सिर को सहलाती। जरूरत पड़ने पर हाथ-पैर दबाती, नहलाती-धुलाती भी।
सेवा-परिचर्या के साथ-साथ पीड़ा को भुलाये रखने के लिए, पीड़ा से चित्त विभक्त करने के लिए वैराग्यवर्द्धक वैराग्यभावना, बारह भावना के पाठ सुना-सुनाकर संसार के दुःखद और क्षणभंगुर स्वरूप का ज्ञान कराती। कभी कर्मों की विचित्रता की कथा-कहानियाँ सुनाकर समता भाव जागृत करने का प्रयास करती। कभी आध्यात्मिक भजन सुनाकर उसके मन को रमाती । सुनते-सुनते बहुत कुछ पद्य पाठ धनेश को याद भी हो गये, जिन्हें वह स्वयं गुनगुनाया करता।
एक बार धनश्री ने धनेश से पूछा - "अच्छा बताओ ! बारह भावनाओं का संक्षिप्त सार क्या है ?"
धनेश ने बारह भावनाओं का सार बताते हुए कहा - "अनित्यभावना में संयोगों को क्षणभंगुर अनित्य बताया है। पुत्र परिवार कंचनकामिनी तेरे साथ सदा रहने वाले नहीं हैं। या तो ये तेरा साथ छोड़ देंगे अथवा तू स्वयं इनसे चिर विदाई ले लेगा। अत: हे भव्य ! तू ही इनसे मोह तोड़ दे और अपने अमर आत्मा का अवलम्बन लेकर परमात्मा बन जा।
सच्चा मित्र वह जो दुःख में साथ दे
१५५ अशरण भावना में यह कहा है कि - वियोग होना संयोगों का सहज स्वभाव है, ऐसी कोई औषधि या मणि मंत्र-तंत्र नहीं है जो संयोगों का वियोग होने से बचा सके। जगत अशरण है, इसमें शरण खोजना ही पागलपन है। निज आत्मा और पंच परमेष्ठी परमात्मा के सिवाय सब अशरण हैं।
संसार भावना में कहा है कि - संसार के संयोगों में जब सख है ही नहीं तो इन संयोगों की शरण में जाना ही निरर्थक है।
एकत्व भावना में यह कहा गया है कि दुःखों को मिल-जलकर नहीं भोगा जा सकता। अकेले ही भोगने होंगे।
अन्यत्व भावना में यह बताया है कि - कोई किसी का साथी नहीं हो सकता। जब शरीर ही साथ नहीं देता तो और तो क्या साथ देंगे?
अशुचि भावना में कहा गया है कि - जिस देह से तू राग करता है, वह देह अत्यन्त मलिन है, मलमूत्र का घर है। __इसप्रकार प्रांरभ की उपर्युक्त छह भावनायें संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न कराने में निमित्त हैं। इससे यह आत्मा आत्महितकारी धर्म का स्वरूप सुनने-समझने को तैयार हो जाता है तथा इन भावनाओं के भाने से देहादि पर-पदार्थों से ममत्व कम होता है। शेष छह भावनाओं के द्वारा आस्रव, संवर, निर्जरा आदि तत्त्वों का ज्ञान होता है तथा लोक के स्वरूप की जानकारी होती है।
इन बारह भावनाओं का बारम्बार चिन्तन-मनन करना भी व्यवहार धर्म ध्यान है, क्योंकि इनसे ज्ञान, वैराग्य की ही वृद्धि होती है।"
जब धनेश की तबियत अधिक खराब हो जाती थी तो ज्ञानेश स्वयं धनेश के पास आ जाता और उसे समझाता।