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ये तो सोचा ही नहीं से मेरी पीड़ा तो कम होगी नहीं। वह तो मुझे ही सहनी पड़ेगी। फिर तुम्हें व्यर्थ परेशान क्यों करूँ? कोई एक-दो दिन की बात तो है नहीं, तुम रात-रात भर जाग कर कबतक कितना साथ दे सकोगी ? फिर तुम्हें दिन भर घर-बाहर का सब काम-काज भी तो करना पड़ता है। तुम्हारा शरीर भी कोई फौलाद का बना नहीं है। धनश्री ! मैंने तुम्हें जीवन में द:ख के सिवाय और दिया ही क्या है?" कहते-कहते धनेश की आँखो में आसू छलक आये।
धनश्री ने कहा - "आप पुरानी बातों को याद कर-करके ये कैसी बातें करते हो? याद है उस दिन ज्ञानेशजी ने क्या कहा था ? उन्होंने कहा था कि- जिसका करना चाहिए हमें स्मरण, हम उसका करते हैं विस्मरण; और जिसका करना चाहिए हमें विस्मरण, हम उसका करते हैं स्मरण; इसी कारण तो होता है संसार में परिभ्रमण ।
सचमुच भूतकाल तो भूलने जैसा ही है; उसे याद करने से पश्चात्ताप और दुःख के सिवाय और मिलता ही क्या है ? भूतकाल तो भगवान का भी भूलों से ही भरा था। हम तुम तो चीज ही क्या हैं उनके सामने ? अतः भूतकाल में हुई भूलों के लिए रोना-धोना व्यर्थ ही है।
ज्ञानेश के प्रवचन में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह भी आई थी कि कोई अन्य व्यक्ति किसी को सुख-दुख का दाता है ही नहीं, अपना अज्ञान व राग-द्वेष से बांधे हए पापकर्म ही अपने-अपने दुःख के विधाता हैं। अत: किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है।"
धनश्री की अमृत तुल्य ज्ञान की बातें सुनकर धनेश को ऐसा लगा मानो उसके हरे-भरे घावों पर किसी ने मरहम ही लगा दी हो । उसे थोड़ी देर के लिए अतीन्द्रिय आनन्द की सी अनुभूति हुई। फिर उसे विकल्प आया अभी रात के तीन बजे हैं, धनश्री को सो जाना चाहिए।
धनेश ने स्नेह भरे स्वर में कहा -“धनश्री ! तुम सो जाओ। मुझे
करनी का फल तो भोगना ही होगा
१४९ मेरे हालातों पर छोड़ दो। मेरे पीछे तुम अपना स्वास्थ्य मत बिगाड़ो। अब तुम मेरे बजाय मेरे बेटे की देखभाल पर ध्यान दो। तुम्हारे सिवाय अब उसका है ही कौन? मेरे जीवन का तो कोई भरोसा नहीं है। ____ मेरी बुरी आदतों से यह शरीर तो बीमारियों का ही अड्डा बन गया है। सचमुच यदि ज्ञानेशजी का सान्निध्य नहीं मिला होता और आत्मा के स्वभाव का बल नही होता तो संभवत: मैं इस पीड़ा से बचने के लिए जहर खाकर कभी का चिरनिद्रा में सो गया होता।"
धनेश की बातें सुनकर धनश्री की आँखों में आँसू आ गये। आँसू पोंछती हुई बोली - "स्वामी ! आप अपने मुँह पर मौत की बात लाते ही क्यों हो? ऐसा अशुभ सोचते ही क्यों हो? अभी आपकी उम्र ही क्या है ? यह पाप का उदय भी चला जायेगा। मुझे विश्वास है कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जायेंगे।"
धनेश ने कहा -“यह तुम नहीं, तुम्हारा राग बोल रहा है। ठीक है, तुम्हारी भावना सफल हो । यदि मुझे जीने की तमन्ना नहीं है तो मरने की जल्दी भी नहीं है। जबतक ज्ञानेश के सत्संग से यह आत्मकल्याणकारी धर्म की बात सुनने-समझने का एवं तत्त्वचिन्तनमंथन करने का मौका मिल रहा है, अच्छा ही है; पर हमारे-तुम्हारे सोच के अनुसार कुछ नहीं होता। जो होना है, वह निश्चित है - अब मुझे इस पर पूर्ण आस्था हो गई है। पर इतना मैंने पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मैं अपना शेष जीवन ज्ञानेश के सान्निध्य में ही बिताऊँगा। आज से वह मेरा मित्र ही नहीं, गुरु भी है।"
बात करते-करते धनेश को फिर दमा का दौरा पड़ गया और वह छाती दबा कर वहीं बैठ गया। बैठे-बैठे सोचने लगा - "करनी का फल तो भोगना ही पड़ेगा, पलायन करने से काम नहीं चलेगा। जब कुत्ते के कान में कीड़े पड़ जाते हैं और वे काटते हैं तो वह कान