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________________ १३८ 71 ये तो सोचा ही नहीं ऐसे विचार व्यक्त करके उस वकील ने भी अपने पापकर्मका प्रायाश्चित्त किया और भविष्य में ऐसे कर्म न करने का मन में संकल्प कर लिया। सेठ लक्ष्मीलाल, मोहन एवं अन्य सभी श्रोता समवेत स्वर में बोले - हाँ, हाँ; गुरुजी ! हम सबकी लगभग यही स्थिति है। वहीं बैठे एक नेताजी बोले - "हम ही क्या आज पूरा देश इसी स्थिति से गुजर रहा है, सभी इन्हीं आर्त और रौद्रध्यानों में ही आकंठ निमग्न हैं। यह बात जुदी है कि लोगों को यह पता नहीं है कि ये भाव इतने दुःखद एवं आत्मघातक हैं, नरक के कारण हैं। किसी ने इस दिशा में कभी सोचा ही नहीं, इसकारण सभी का यों ही जीवन व्यतीत हो रहा है। अब आपके सद्प्रयास से जब यह पता चल ही गया है तो अब इनसे बचने का मार्गदर्शन भी तो प्राप्त होना ही चाहिए। जो भी आप बतायेंगे, हम तो उससे लाभान्वित होंगे ही, हम इस बात को तन-मनधन से जन-जन तक पहुँचाने का भी पूरा-पूरा प्रयास करेंगे।" लोगों की रुचि एवं जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए ज्ञानेश ने सबको आश्वस्त किया - "भाई ! शास्त्रों में सबकुछ भरा पड़ा है, देखने की दृष्टि चाहिए तथा समझने के लिए थोड़े से समय की और तीव्र रुचि की आवश्यकता है। मैं भी कोशिश करूँगा और आप लोग भी थोड़ा-थोड़ा प्रयास करिए, कठिन कुछ भी नहीं है, असंभव भी कुछ नहीं है, दिशा बदलते ही दशा भी बदल जाती है। पुराने पापों का प्रायाश्चित्त करने और उनकी पुनरावृत्ति न करने से पाप पुण्य में भी बदल सकते हैं। आज यहीं तक, शेष कल। बीस ये तो सोचा ही नहीं सूर्य चारों ओर से अपनी लाली समेटता द्रुतगति से अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। गोधूली का समय था, धूल उड़ाती हुई गायें अपने बछड़ों की याद में दौड़ी-दौड़ी घर की ओर बढ़ रही थीं। सूर्यास्त के पूर्व भोजन से निवृत्त होकर दिनेश विद्याश्रम के अधिकांश भाई-बहिन टहलने जाया करते थे। विद्याश्रम के विश्रान्तिग्रह में ही ठहरे धनश्री, रूपश्री, विजया, धनेश, सेठ लक्ष्मीलाल और मोहन साथ ही साथ प्रतिदिन घूमने-फिरने उपवन में जाया करते थे। वहाँ आधा-पौन घण्टा शान्त व एकान्त वातावरण में बैठकर ज्ञानेश के प्रवचन में आये महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर परस्पर चर्चा-वार्ता किया करते थे। विगत दो दिनों से प्रवचनों में आर्त-रौद्रध्यान का स्वरूप एवं उनके दुष्परिणामों की दर्दभरी दास्तान सुनकर उनके पाँव तले की जमीन खिसकने लगी थी। उन सबकी आँखें तो पश्चात्ताप से झरते आंसुओं से गीली हो ही रही थीं, प्रत्येक का हृदय भी धड़कने लगा था। सभी के मन बोझिल हो रहे थे। धनेश ने साहस करके मुँह खोला और बात प्रारम्भ करते हुए कहा - "देखो, इन आर्त-रौद्र जैसे खोटे भावों में हम लोग इस समय आकंठ निमग्न हो रहे हैं, भविष्य में इनसे बचने का उपाय और पिछले पापों से छुटकारा पाने की विधि तो खोजनी ही होगी; अन्यथा जब हाथ से बाजी निकल जायेगी, तब अन्त समय में क्या होगा ?"
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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