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________________ १२० सत्तरह कुशल व्यापारी कौन ये तो सोचा ही नहीं ऐसे दु:खी होने से आर्तध्यान होता है, इससे भी पापबंध होता है। यह सब जो भी हुआ वह भी तो अपने पूर्व पाप के फल का ही परिणाम है, जो बोया है उसकी फसल तो उगेगी ही। बोया पेड़ बबूल का। आम कहाँ से खाय? ।। एक श्रोता ने विनम्र भाव से कहा - "भाई ! आपके जीवन की इस घटना ने तो मानो पराण-पुरुष राजा सत्यन्धर के इतिहास को ही दुहरा दिया है। रानी विजया के मोह में मूर्छित राजा सत्यन्धर के चरित्र पर टिप्पणी करते हुए पुराणकार ने ठीक ही लिखा है विषयासक्त-चित्तानां गुण को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं, नाभिजात्यं न सत्यवाक् ।। विषयों में आसक्त चित्तवालों में न विद्वता रहती है, न मनुष्यता रहती है, न बड़प्पन रहता है और न सत्यवचन ही रहते हैं।" मोहन ने स्वीकार किया कि - "हाँ, भाई ! आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। जब एक-एक विषय में आसक्त प्राणी अपने प्राण गंवा देते हैं तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त प्राणियों का क्या कहना ? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैं आपके सामने हैं। अतः अपना कल्याण चाहनेवालों को इन इन्द्रियों के विषयों से दूर ही रहना चाहिए।" जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से विश्वकल्याण की भावना भाता है, समस्त प्राणियों के सदैव सुखी रहने की कामना करता है, सबका भला चाहता है सबसे नि:स्वार्थ धर्मवात्सल्य रखता है, प्राणीमात्र से मैत्री भाव रखता है। जो सोचता है कि - मेरे मन में समस्त प्राणियों से मैत्री हो, गुणी जनों को देख प्रमोद भाव उमड़े, विरोधियों के प्रति समता भाव हो और दुखियों के प्रति दया भाव रहे तथा दूसरों का शोषण किए बिना अपना पोषण करूँ - ऐसी मंगलमय भावना रखनेवाले दूसरों के सुख के लिए जो भी मार्गदर्शन करते हैं, उससे दूसरों का लाभ तो होता ही है; स्वयं को भी पुण्य लाभ होता है और उस पुण्योदय से आजीविका आदि के लौकिक काम सहज ही सफल होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति येन-केन प्रकारेण केवल अपना स्वार्थ साधने की ही सोचता है, वह पाप का ही अर्जन करता है। इस बात को निम्नांकित उदाहरण से समझा जा सकता है - वैद्य मनीराम को दैवयोग से एक ऐसी संजीवनी औषधि उपलब्ध हो गई, जिससे मरणासन्न व्यक्ति भी अल्पकाल में पूर्ण स्वस्थ हो जाता है। इस अनुपम उपलब्धि की वैद्यजी को बहुत खुशी है। इस खुशी के दो कारण हो सकते हैं - एक तो यह कि “अब आज गोष्ठी का समय मोहन की बातचीत में ही पूरा हो गया; पर अधिकांश लोगों ने महसूस किया कि यह भी बहुत बड़ा काम हो गया। इस बात से मोहन के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन तो आया ही, इनके प्रभाव में रहनेवाले और भी अनेक लोग लाभान्वित होंगे। . ..
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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