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ये तो सोचा ही नहीं क्योंकि अब तो जहर खाने तक को पैसे नहीं रहे। नशे में डूबे रहने के लिए भी तो पैसे चाहिए न ? मदिरा मुफ्त में तो आती नहीं ! मदिरा पीने के लिए भी अब मैं पैसे कहाँ से लाऊँ ? घर की तो एक-एक वस्तु इस मदिरा देवी की बलिवेदी पर चढ़ा चुका हूँ। अब तो.. ।”
इसतरह अन्तर्जल्प करते-करते उसकी आँख लग गई। आँख तो लग गई. पर सोते-सोते स्वप्न में भी वही रटन.... ।
ज्ञानेश आत्मचिंतन और तत्त्वमंथन करने हेतु एकान्त स्थान खोजते हुए कभी सघनवृक्ष की छाया तले तो कभी किसी बाग-बगीचे में और कभी किसी तीर्थ पर चला जाता था।
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एक दिन वह नदी के किनारे पर बैठा-बैठा सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य देख रहा था और सोच रहा था - "जैसे इस सूर्य की इहलीला समाप्त हो रही है, इसका प्रकाश व प्रताप प्रतिक्षण क्षीण हो रहा है; ठीक इसीतरह मानव जीवन भी प्रतिपल मृत्यु की ओर बढ़ रहा है; अतः जीवन का प्रकाश रहते यथासंभव शीघ्र ही आत्मा-परमात्मा का चिन्तन-मनन कर वीतरागधर्म की प्राप्ति कर लेना चाहिए।"
मुड़कर देखा तो गोते खाता, डूबता उतरता एवं घबराता हुआ हाथ-पाँव फड़फड़ाता एक व्यक्ति दिखाई दिया। जो कुछ-कुछ जानापहचाना सा लगा। ज्ञानेश ने पास आकर देखा तो आँखें फटीं की फटीं रह गईं ।
"अरे ! यह तो मोहन है। इसे यह क्या सूझा ? माना कि इसे अपने किए पापों का पश्चात्ताप है, आत्मग्लानि भी बहुत है । पर .... ऐसा अनर्थ ? निश्चय ही वह अपना संतुलन खो बैठा है। अन्यथा इन सामान्य से अल्पकालिक दुःखों से बचने के लिए वह आत्मघात करके नरक गति के असह्य, कल्पनातीत, दीर्घकालिक दुःखों को आमंत्रण नहीं देता।"
"अरे! मैं यह क्या सोचने लगा ? अभी यह सोचने का समय नहीं
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अब पछताये क्या होत है जब
है। देखूँ तो सही, सम्भव है कि वह अभी जीवित हो ।”
- ऐसा विचार आते ही ज्ञानेश अपनी जान को जोखिम में डालकर अथाह नदी में कूद गया और उसे नदी के मध्य से किनारे पर खींच लिया।
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मोहन के पेट में बहुत पानी भर चुका था, पल दो पल में ही प्राणपखेरू उड़नेवाले थे; पर दैवयोग से वह बच गया । प्रायश्चित्त की गंगा में गोते लगाकर उसने पापों का प्रक्षालन तो कर लिया; पर अभी भी उसकी आत्मग्लानि कम नहीं हुई।
उसने ज्ञानेश से कहा - "भाई ! इन दुर्व्यसनों के कारण मैं आत्महत्या जैसे जघन्य पाप करने को विवश हो गया और नदी में कूद पड़ा; यदि आप नहीं बचाते तो..!
मैं इस जीवन से तो मानों मर ही चुका हूँ। अतः अब मैं पुन: इस पापचक्र एवं विषयवासना के दलदल में नहीं फंसना चाहता हूँ। अब तो मैं आत्मा का कल्याण करने के लिए ही जीना चाहता हूँ । एतदर्थ आपकी शरण में ही रहना चाहता हूँ।"
ऐसा कहते-कहते वह भावुक हो उठा, उसकी आँखों में पुनः पश्चाताप की अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी।
ज्ञानेश ने कहा - "देखो, मोहन ! इस तरह पारिवारिक उत्तरदायित्त्वों से पलायन करने से धर्म नहीं होता। भावुकता में धर्म का अंकुर नहीं उगता । सर्वप्रथम अपने इन दुर्व्यसनों से मुक्ति पाने का प्रयत्न करो। अपने परिवार की स्थायी आजीविका के लिए कोई उपाय सोचो। साथ-साथ में थोड़ा समय निकाल कर हमारी संगोष्ठियों में सम्मिलित होकर सत्संगति भी करो, शास्त्रों का स्वाध्याय करो। बस, यही धर्म की पृष्ठभूमि है। धर्मध्यान निराकुलता में, निश्चित और निर्भय होने पर ही संभव है। एतदर्थ जैसा मैं कहूँ तदनुसार अपनी दैनिक चर्या बनाओ, यही सुखी होने का सही उपाय है।” मोहन मौन स्वीकृति के साथ ज्ञानेश के मार्गदर्शन का अक्षरशः पालन करने का दृढ़ संकल्प लेकर घर चला गया।
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