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________________ पति के स्थान की पूर्ति संभव नहीं ये तो सोचा ही नहीं ढलकने के बजाय अन्दर ही अन्दर सूख गये थे। आँखें फटी की फटी रह गईं थीं । जब रोना चालू हुआ तो ऐसी रोई कि उसे रोता देख सारा वातावरण शोक-संतप्त हो गया, सभी उपस्थित प्राणी दुःखी हो गये। रूपेश के आकस्मिक निधन से रूपश्री का स्वप्निल-संसार उजड़ चुका था। उसके सारे मनोरथ मन के मन में ही रह गये थे। उसकी सारी मनोकल्पनायें सुहागिन बनने के साथ ही बिखर गईं। नारी का सुहाग सदा के लिए छिन जाना नारी जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। वह धैर्य धरे भी तो कैसे? आत्मज्ञान का बल, वस्तु के स्वतंत्र परिणमन की श्रद्धा और अपनी होनहार एवं पुण्य-पाप के फल का विचार ही एकमात्र उपाय है, जिसके बल पर बड़ी से बड़ी प्रतिकूलता में भी समतापूर्वक रहा जा सकता है। परन्तु वह अभी उससे अनभिज्ञ थी। उसकी आँखे झरने बन गईं,जिनसे दिन-रात आँसू झरते ही रहते । गीली आँखें कभी सूखती ही नहीं। यह हालात देख समय-समय पर माँ की ममता उमड़ पड़ती। समझाते-समझाते माँ स्वयं भी फूट-फूट कर रो पड़ती। रूपश्री का दु:ख किसी से देखा नहीं जाता। आस-पड़ौस की, मुहल्ले की महिलायें उसे समझाने, सहानुभूति दिखाने आती; पर उसके विलाप को देखकर स्वयं रो पड़तीं, समझाने का असफल प्रयास करतीं; पर स्वयं के आँसू भी नहीं रोक पातीं। अभी हाथों की मेंहदी रंग भी नहीं ला पायी कि दुर्दैव ने उसके पहले ही उसके हाथों की मेंहदी और माथे का सिन्दूर पोंछ डाला। माँ के गले से चिपकी रूपश्री रोते-रोते इतनी थक जाती कि उसका अंग-अंग शिथिल हो जाता। सिसकियाँ भरते-भरते वह मूर्छितसी होकर माँ की गोद में ही लुढक जाती। यह कोई एक दिन की बात नहीं थी। ऐसे रोते-बिलखते उसे महीनों बीत गये। रूपश्री के सास-श्वसुर ने तो यह कहकर छुट्टी पा ली थी कि - “अभागिन ने नागिन बनकर ब्याह होते ही हमारे लाल को डस लिया। हम तो कलमुँही का मुँह भी नहीं देखना चाहते।" बस, अब तो रूपश्री को एकमात्र माँ का ही सहारा था। माँ बेचारी पहले से ही विपरीत परिस्थितियों से जूझ रही थी। एक और नया संकट आ पड़ा उसके माथे पर। बड़ी बेटी धनश्री का पति भी प्रारंभ में शराबी निकल गया था, बेटा बचपन से ही अपंग पैदा हुआ, पति मोहन भी साधारण-सी तृतीय श्रेणी का कर्मचारी था; इसकारण 'नो खाये तेरह की भूख' बनी ही रहती। यह तो भगवान ही जानते हैं कि - रूपश्री की माँ ने इस स्वार्थी और वासनामयी दुनियाँ में अपने शील को सुरक्षित रखते हुए अपनी संतान को कैसे पाला-पोसा है। यदि उसमें धैर्य न होता और उसने ज्ञानेश के द्वारा बताये गये धार्मिक सिद्धान्तों और अपने पूर्वकृत पुण्यपाप के फल के ज्ञान का सहारा नहीं लिया होता तो वह कभी की अपनी संतान सहित या तो अकाल मौत मरकर परलोक सिधार गई होती अथवा पति से तलाक लेकर सम्बन्धविच्छेद कर अपने सुहाग के रहते हुए भी एक असहाय-विधवा जैसा जीवन जी रही होती। ज्ञानेश ने रूपश्री, धनश्री और उसकी माँ विजया को समझाया - "देखो, संसार में कोई व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं होता, चाहे वह पिता हो, चाहे पत्नी हो, पुत्र हो, पुत्रवधू हो, पोता-पोती हो; परिवार का कोई भी व्यक्ति क्यों न हो ? वह सम्पूर्ण नहीं होता। परिवार के सिवाय बिजनिस पार्टनर, पड़ौसी, नौकर-चाकर आदि जिनसे भी हमारा नित्य-नैमित्तिक व्यावहारिक सम्बन्ध है, सभी व्यक्तियों में कुछ न कुछ कमियाँ तो होगी हीं।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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