________________
सही साध्य हेतु सही साधन आवश्यक
34
ये तो सोचा ही नहीं ज्ञानेश का यह कथन स्मरण आते ही पहले तो उसे इस बात का पश्चाताप हुआ कि “मैंने अपने बिजनेश में दूसरों को नीचा गिरा कर खुश होने में, उन्हें दुःखी करके मजा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन खोटे परिणामों रूप पाप का फल तो मिलना ही था सो मिल गया। अस्तु! अब मैं ऐसी भूल कभी नहीं करूँगा।..."
धनेश ने अपने एक-एक धंधे पर दृष्टि दौड़ाई; परंतु इस दृष्टि से अब प्रायः सभी काम-धंधे उसकी समझ से परे हो गये थे; क्योंकि उसके सभी धंधे ऐसे थे, जिनमें हार्ड काम्पटीशन था। दूसरों को गिराये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता था। यह भी तो पाप ही है। नम्बर एक
और दो का चक्कर भी कम नहीं था। ____ पुण्ययोग से धनेश को भी ज्ञानेश की भांति ही घर बैठे एक ऐसा बिजनिस हाथ लग गया; जिसमें न किसी का शोषण था और न जो किसी के मानसिक कष्ट का कारण था तथा न उसमें विशेष पूंजी की जरूरत पड़ी और न मार्केट में दुकान उपलब्ध होने की समस्या से जूझना पड़ा। दुकानदारी या नौकरी की भाँति समय का बंधन भी नहीं था; झूठ, धोखाधड़ी, मायाचारी और कर-चोरी जैसे किसी बड़े पाप प्रवृत्ति में पड़ने की बाध्यता भी नहीं थी। जिसमें लाभ भले प्रारंभ में कभी कम, कभी अधिक हुआ, परन्तु हानि का तो कुछ काम ही नहीं था। इसप्रकार वह बिजनेश तो सब तरह से अच्छा है ही, संगति भी भले लोगों की ही मिलती है; क्योंकि यह बिजनेश ही विश्वास और नैतिकता का है, वैसे भी व्यापार में व्यसनी का कौन विश्वास करे ? अत: दुर्व्यसन छोड़ना तो सभीप्रकार के व्यापारों में सफलता पाने के लिए व्यक्ति की बाध्यता है। फिर वर्तमान बिजनेश जो उसे हाथ लगा, उसमें तो दुर्व्यसनी चल ही नहीं सकते थे। अतः धनेश ने प्रतिज्ञापूर्वक दुर्व्यसन त्याग दिए तथा इसमें परस्पर एक-दूसरे की उन्नति चाहना, सहयोग करना स्वयं की सफलता के लिए भी आवश्यक है।
वस्तुतः यह बिजनेश ही ऐसा है, जिसमें दूसरों को आगे बढ़ाने में दूसरों की सफलता और उन्नति में ही अपनी सफलता एवं उन्नति छिपी होती है। इसकारण परस्पर में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष की तो कोई बात ही नहीं है। इस बिजनेश के उत्पाद भी सर्वश्रेष्ठ हैं।
धनेश को तो यह बिजनिस सर्वोत्तम अच्छा लगा ही, वह चाहता है कि वह यह बिजनेश अपने अन्य साथियों एवं ज्ञानेश को भी बताये। उसे पता नहीं था कि ज्ञानेश भी इसी बिजनेश को कर रहा है। ___ ज्ञानेश बताना चाहता था, पर धनेश ने अपने अहं में उसकी बात कभी ध्यान से सुनी ही नहीं। धनेश हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कि "मैं ज्ञानेश से कैसे कहूँ ? वह तो दुनिया को समझाता है।"
वह सोचता - “जो सदैव संतोष धन की ही महिमा गाता रहता हो, जिसे 'सन्तोषधन' की तुलना में 'भौतिकधन' सचमुच धूल जैसा तुच्छ लगने लगा होगा। इसकारण सहज-सुलभ और सीमित साधनों में ही सदा सन्तुष्ट रहने की जिसकी आदत सी बन गई है; उसे पुन: लीक से हटकर धनार्जन की उपयोगिता समझाना सरल काम नहीं है; परन्तु दिन-प्रतिदिन अपनी सीमाओं को लांघती हुई बांस की भाँति बढ़ती मंहगाई और दिन-प्रतिदिन बढ़ती आवश्यक आवश्यकताओं के इस युग में कोई कितना भी मितव्ययी क्यों न हो, फिर भी अचानक असीमित अनिवार्य खर्च भी तो आ ही जाते हैं, उनकी आपातकालीन आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी तो पर्याप्त धन के बिना काम नहीं चल सकता। पूरे परिवार के जीवन निर्वाह की सम्पूर्ण जिम्मेदारी तो अकेले ज्ञानेश पर है ही, उसके बूढ़े माता-पिता भी हैं, जिन्हें कभी भी कुछ भी आपातकालीन स्थिति आ सकती है।
भले ही हम लाखों लाख शुभ कामनायें करें - कभी किसी को कोई आपत्ति न आये; पर मात्र हमारे चाहने से क्या होता है ? असंभव