SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पैसा बहुत कुछ है, पर सब कुछ नहीं ये तो सोचा ही नहीं समझी। सब कुछ धनश्री के पिता पर निर्भर रहा और शादी धनाढ्य धनेश के साथ कर दी गई। धनश्री का बचपन तो जैसा बीतना था, बीत ही गया। अब यौवन की जीवन यात्रा भी उसी तरह के अनिष्ट संयोगों में ही प्रारंभ हुई। बचपन से ही कल्पना लोक मे विचरने वाली धनश्री की कल्पनाओं पर, उसकी आशालताओं पर जब तुषारापात हुआ तो वह अर्द्धविक्षिप्तसी हो गई। उसे अपने चारों ओर अनिष्ट...अनिष्ट...के ही दृश्य दिखाई देने लगे, अनिष्ट....अनिष्ट..अनिष्ट के ही स्वर सुनाई देने लगे। ___उसके मुँह से एक ही बात निकलती - " अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे कटेगी मेरी यह पहाड़-सी जिन्दगी इनके साथ ? इन्हें आये दिन पीना है, पीकर पागलों जैसा विवेकहीन होना है, विवेकहीन होकर हिंसक और आक्रामक होना है, कामोत्तेजित होना है और फिर न जाने क्या-क्या अनर्थ करना है? ____ इससे इनकी सेहत तो खराब होनी ही है, मानसिक संतुलन भी कितना रख पायेंगे ? कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में न इनकी बात का विश्वास किया जा सकता है, न व्यवहार का भरोसा । क्या पता कब/क्या कर बैठे ? शराब के नशे में व्यक्ति विवेकशून्य तो हो ही जाते हैं, उनकी वासनायें भी बलवती हो जाती हैं, फिर न स्वस्त्री-परस्त्री का विवेक, न इज्जत-आबरूकी परवाह।....... हे भगवान ! ऐसी स्थिति में मैं तो एक दिन भी नहीं गुजार सकती इनके साथ। अब करूँ तो करूँ भी क्या?" धनश्री के मन के कोने से आवाज आई - "हाँ, एक रास्ता है - तलाक ? मन के दूसरे कोने से प्रश्न उठा - क्या कहा तलाक ? अन्तर में विवेक ने समाधान किया - तलाक की कभी सोचना भी नहीं, तलाक का जीवन भी कोई जीवन है ? उससे तो मौत ही अच्छी है। तलाकशुदा नारियों को देख कामी कुत्तों की लार जो टपकती है! वे उसे नोचने-चींथने को फिरते हैं। इसकी भी कल्पना की है कभी ? तलाकशुदा यौवना की मांसल देह को देख जो गुण्डे चारों ओर से गिद्धों की तरह मँडराते हैं, उनकी गिद्ध दृष्टि से बचना कितना कठिन है, यह भी सोचा कभी ?अरे! नारी दैहिक व मानसिक दोनों दृष्टियों से कितनी कमजोर है, थोड़ी इसकी भी कल्पना कर! थोड़ा धैर्य और विवेक से काम कर! आखिर ये अपने पापकर्म के फल ही तो हैं। इस दण्ड से दूर भागूंगी तो अन्य अनेक अनिष्ट संयोगों का सामना करना पड़ सकता है।" धनश्री आगे सोचती है - "अब तो मरना ही एक रास्ता है, पर बात मुझ तक ही सीमित होती तो और बात थी, पर अब तो धनेश की संतान भी मेरे पेट में पल रही है। ऐसी स्थिति में न मैं मर ही सकती हूँ और न जी ही सकती हैं। हे प्रभो ! यदि मरती हूँ तो आत्महत्या के साथ एक और मनुष्यजीव की हत्या का महापाप माथे पर लेकर मरना पड़ेगा, जो साक्षात् नरक गति का हेतु है और यदि जीवित रहती हूँ तो इन परिस्थितियों में जिऊँगी कैसे ?" लोग कहते हैं - "घबड़ा मत ! ‘आशा पर आसमान टिका है।' मैं भी इसी आशा पर तो अब तक जीवित हूँ, अन्यथा.........।" सोचा था - "शादी होगी, ससुराल चली जाऊँगी, वहाँ स्वर्ग जैसा वातावरण मिलेगा तो यह सब भूल जाऊँगी; पर वे सब सपने धूल में मिल गये। एक नया निराशा का पहाड़-सा आगे आ गया, जिससे
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy