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ये तो सोचा ही नहीं
सम्मानजनक है और न ही सेहत के लिये हितकर । हिंसा जनक और नशाकारक पापमय परिणाम होने से धार्मिक दृष्टि से तो ये त्याज्य
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धनेश भी इस दोष से नहीं बच सका। वह भी यदा-कदा मद्यपान कर ही लेता है। जो मद्यपान करता है वह उसके सहभावी दुर्गुणों से भी कैसे बच सकता है ? धनेश मद्यपान के सहभावी दोषों से भी नहीं बच सका। शनैः-शनै: वह सभीप्रकार के दुर्व्यसनों की गिरफ्त में आ गया।
ज्ञानेश को बारम्बार विचार आता कि "काश ! किसीतरह धनेश को अपनी वर्तमान पाप परिणति की पहचान हो जावे और इसके फल में होनेवाली अपनी दुर्दशा का आभास हो जावे तो निश्चित ही उसके जीवन में परिवर्तन आ जायेगा। अभी उसे इस पाप परिणति के दुष्परिणामों का पता नहीं है, इस कारण बेचारा दिन-रात पापाचरण में रचा-पचा रहता है।
जिस तरह एक अबोध बालक विषधर नाग के बच्चे से निर्भय व निर्द्वन्द भाव से खेलता है; क्योंकि उस भोले बालक को पता ही नहीं है कि यह विषधर का बच्चा कितना खतरनाक है, कितना प्राणघातक है? यदि यह क्रुद्ध होकर काट खाये तो मरण निश्चित ही समझो। यदि उस बालक को उस हानि का ज्ञान हो जाये तो क्या वह फिर उससे खेलेगा?
ठीक इसीतरह अपने विचित्र पापमय परिणामों के फल से अनजान व्यक्ति ही उन पाप परिणामों में निरन्तर रमा रहता है और जिसे यह भान हो जाता है कि वे परिणाम काले नाग जैसे जहरीले हैं, तो फिर वह उनसे बचने का उपाय सोचता है।"
यही सब सोचकर ज्ञानेश ने धनेश को दो बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के लिए प्रेरित किया; पर धनेश के पल्ले अभी तक कुछ नहीं पड़ा। पड़ता भी कैसे ? वह ज्ञानेश की बात ध्यान से सुनता ही
खोटे भावों का क्या फल होगा? कहाँ है? वह तो अपनी ही धुन में रहता है। उसका ध्यान ही कोई दूसरी दिशा में चल रहा है, इस कारण वह ज्ञानेश के कहे गये अभिप्राय को समझ ही नहीं पाता । समझना कोई बड़ी बात नहीं है; पर समझने की रुचि हो तब न!
धनेश भले ही धनाढ्य है, परन्तु उसकी प्रवृत्तियों से उसकी पत्नी, पुत्र और परिजन - सभी परेशान हैं, दुःखी हैं। संसार का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि यहाँ सबको सभीप्रकार की अनुकूलतायें नहीं मिल पातीं; क्योंकि ऐसा अखण्ड पुण्य किसी के भी पास नहीं होता। ऐसे दुःखी जीवों के दुःख को देखकर धर्मात्माओं के हृदय से ऐसी करुणा की धारा प्रवाहित हुए बिना नहीं रहती, जो उन्हें सत्य एवं सुखद सिद्धान्तों का निरूपण करने को प्रेरित करती है।
धनेश एवं उसके परिवार को मानसिक दुःख से दुःखी देख ज्ञानेश के हृदय में सहज करुणाभाव उमड़ पड़ता और वह उन्हें समझाने लगता। जब धनेश उसकी बातों की उपेक्षा करता तो ज्ञानेश स्वयं दुःखी होने के बजाय अपने मन में यह सोचकर संतोष कर लेता कि "मेरे समझाने से धनेश की समझ सही होने वाली नहीं है, मैं तो निमित्तमात्र हूँ। जबतक उसमें स्वयं समझने की योग्यता नहीं आयेगी, तबतक मैं तो क्या, भगवान भी उसकी समझ को सही नहीं कर सकते।"
ऐसी पक्की श्रद्धा होने पर भी ज्ञानेश को बार-बार समझाने का भाव आये बिना नहीं रहता। अत: वह मित्र के नाते प्रेमवश धनेश को सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करता रहता।