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________________ ये तो सोचा ही नहीं देखो ! जो गंगाजल अबतक सबको पवित्र करता था, वही गंगा जल जब अलग-अलग जातियों एवं सम्प्रदायों के द्वारा घड़ों में भर लिया जाता है तो एक दूसरे के घड़े को छूने मात्र से वह अपवित्र होने लगता है। अत: ये जातिवर्ग और सम्प्रदायों के घड़े तोड़े बिना गंगाजल पवित्र नहीं रह सकेगा। इसी भाँति आत्मा का धर्म भी आत्मा-परमात्मा का सही श्रद्धान, ज्ञान और सम्यक आचरण में है। अपने आत्मा और आत्मा की निर्मल परिणति को पहचान कर उसी में जमने-रमने में है। राग-द्वेष-काम-क्रोध-मोह आदि विकृतियों में धर्म कहाँ ? अपने-अपने भाग्य का खेल फिल्मों में तो पुलिस और राजनेताओं को भी अधिकतर भ्रष्ट ही दिखाया जाता है, क्या उस आधार पर सभी पुलिसवालों और सभी राजनेताओं को अपराधी मानकर दण्डित किया जा सकता है ? पर इतना सोचने-समझने की उन्हें फुरसत ही न थी। तथाकथित नेता भ्रष्ट हो सकते हैं, कुछ पुजारी और पण्डित पाखण्डी हो सकते हैं; कोई साधु ढोंगी हो सकता है; परन्तु राजनीति का नाम भ्रष्टता नहीं है, पूजा और ज्ञान पाखण्ड नहीं है। आत्मसाधना तो ढोंग नहीं है। अत: तथाकथित भ्रष्ट नेता, पाखण्डी पण्डित और ढोंगी साधु को देखकर ईमानदार नेता की, सच्ची साधना की और ज्ञानी साधक की उपेक्षा तथा अनादर नहीं किया जा सकता। धनेश के पिता भूपेन्द्र पाश्चात्य वातावरण से पूर्णत: प्रभावित तो थे ही, उसी में रच-पच भी गये थे। धर्म की बातें न उन्होंने पहले कभी सुनी, न सुनने-समझने की कोशिश ही की। फिल्मों में और लोक-जीवन में भी धर्म के नाम पर धंधा करनेवाले कतिपय ढोंगी धर्मात्माओं के विकृत स्वरूप को देखकर उनकी रहीसही आस्था भी धर्म पर से उठ गई थी। अब उन्हें धर्म एक ढोंग से अधिक कुछ नहीं लगता था। धर्म की बातें कल्पनालोक की कपोलकल्पित लगने लगी थीं। वे अपने यौवन में राजनीति में सक्रिय रहे, एक दो बार एम.एल.ए. भी चुने गये; इसकारण वे अपने आपको बहुत बड़ा बुद्धिमान पढ़ालिखा इन्सान मानते थे, पर उनकी उस पैनी बुद्धि में यह बात समझ में क्यों नहीं आयी कि फिल्मों में तो हर बात को बढ़ा-चढ़ाकर ही प्रदर्शित किया जाता है और लोकजीवन में भी यदि कोई धर्म के नाम पर धोखा-धड़ी करे तो इससे धर्म कपोल-कल्पित कैसे हो गया ? सभी धर्मात्मा ढोंगी कैसे हो गये ? बस, कमाना-खाना और मनोरंजन करना । यही भोगप्रधान भौतिक जीवन था धनेश के माता-पिता का । उनके इस वातावरण के प्रभाव से उनका बेटा धनेश भी नहीं बच पाया। वह भी भोग प्रधान भौतिक वातावरण में रंग गया, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ के कुमार्ग पर चल पड़ा। धनेश के उन्मार्गी होने से न केवल उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा, उसका व्यापार-उद्योग भी प्रभावित हुआ। वस्तुत: संस्कारों के दो स्रोत (रास्ते) होते हैं। एक पूर्वजन्म से समागत और दूसरे माता-पिता कुटुम्ब-परिवार आदि पूर्व पीढ़ियों से प्राप्त । जिनको जीवन में धार्मिक संस्कारों का सुयोग न पूर्वजन्म में मिला हो और न माता-पिता से ही मिल रहा हो, उनके दुर्भाग्य की तो बात ही क्या करें ? उन्हें तो चारों ओर फैले भौतिकता के जाल में फंसना ही है; पर जिन्हें सौभाग्य से कभी न कभी, कहीं न कहीं से
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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