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लम्ब११
सूक्तिसंग्रह जैसे अन्धकार से परिपूर्ण व्याप्त गुफा के समीप दीपक लाने पर अन्धकार स्वयमेव ही निकल कर भाग जाता है, वैसे ही चिरकाल से उपस्थित वस्तु भी उसके विरोधी पदार्थ के आने से स्वयमेव नष्ट हो जाती है।
लम्ब-११ १२१. सज्जन/बुद्धिमान मनुष्य की विशेषताएँ -
कृतिनामकरूपा हि वृत्तिः सम्पदसम्पदोः।
न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया ।।३।। जिसप्रकार हजारों नदियों के जल को प्राप्त करके भी समुद्र कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता; उसीप्रकार बहुत ज्यादा सम्पत्ति या विपत्ति को प्राप्त कर बुद्धिमान पुरुष भी खेद खिन्न नहीं होते। १२२. राज्यशासन और तप की समानता -
तपसा हि समं राज्यं योगक्षेमप्रपञ्चतः।
प्रमादे सत्यधः पातादन्यथा च महोदयात् ।।८।। राज्यशासन योग और क्षेम के विचार से तप के समान है; क्योंकि राज्य और तप के योग-क्षेम के विषय में प्रमाद करने से दोनों का अध:पतन होता है और प्रमाद छोड़ने से दोनों का महान उत्कर्ष होता है।
कभी नहीं प्राप्त वस्तु के पाने को योग कहते हैं और प्राप्त की रक्षा करना क्षेम कहलाता है।
राज्यशासन की अपेक्षा 'योग' शब्द का अर्थ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और 'क्षेम' का अर्थ प्राप्त की हुई वस्तु की सुरक्षा है। १२३. पद्मा आर्यिका का उपदेश -
प्रव्रज्याः जातचित्प्राज्ञैः प्रतिषेद्धं न युज्यते।
न हि खादापतन्ती चेद्रत्नवृष्टिर्निवार्यते ।।१७।। जिसप्रकार अपने आप आकाश से बरसती हुई रत्न-राशि को कोई गिरने से नहीं रोकता; उसीप्रकार बुद्धिमान लोग जिनदीक्षा धारण करने में किसीप्रकार भी
बाधक नहीं बनते। १२४. जिनदीक्षा लेना विवेकी जनों का कर्तव्य -
वयस्यन्तेऽपि वा दीक्षा प्रेक्षावद्भिरपेक्ष्यताम् ।
भस्मने रत्नहारोऽयं पण्डितैर्न हि दहाते ।।१८।। विवेकीजनों को कम से कम अपनी मनुष्य आयु के अन्तिम भाग अर्थात् वृद्धावस्था में तो जिनदीक्षा को स्वीकार करना ही चाहिए: क्योंकि पण्डित जन राख के लिए रत्नहार को जलाने का निकृष्ट कार्य नहीं करते। १२५. ज्ञानियों का विकार क्षणस्थायी -
न चिराद्धि पदं दत्ते कृतिनां हृदि विक्रिया।
यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छ शोधनम्।।२०।। जैसे रत्न पर आई हुई मलिनता सरलता से ही नष्ट हो जाती है; वैसे ही बुद्धिमानों के हृदय में बहुत समय तक विकार भाव नहीं ठहरते। १२६. मन्त्रयन्त्रादयोऽप्यात्मन्स्वतन्त्रं शरणं न ते।
किन्तुसत्येव पुण्ये हि नो चेत्केनाम तैः स्थिताः ।।३५।। हे आत्मन् ! पुण्यकर्म के उदय के बिना मन्त्र-तन्त्रादिकस्वतन्त्ररूप से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते; किन्तु पुण्य का उदय हो तो ही मन्त्रादिक सहायक सिद्ध होते हैं। यदि पुण्योदय के बिना ही मन्त्रादिक रक्षक हो सकते तो आज तक कोई मरता ही नहीं, सभी जीव अमर हो जाते। १२७. तन्नास्ति यन्न वै भुक्तं पुद्गलेषु मुहुस्त्वया।
तल्लेशस्तव किं तृप्त्यै बिन्दुः पीताम्बुधेरिव ।।३८।। हेआत्मन् ! इस संसार में जो अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य हैं, उनको तुम बार-बार भोग चुके हो। इसलिए जैसे समुद्र भर पानी पीने के इच्छुक व्यक्ति को एक बूंद पानी पीने को मिले तो उसे कभी सन्तोष नहीं हो सकता; वैसे ही वर्तमानकालीन कुछ पुद्गलों का सेवन करने से तुम्हें भी सन्तोष नहीं हो सकता। १२८. भुक्तोज्झितं तदुच्छिष्टं भोक्तुमेवोत्सुकायसे।
अभुक्तं मुक्तिसौख्यं त्वमतुच्छं हन्त नेच्छसि ।।३९।।