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सूक्तिसंग्रह स्वं स्वत्वेन ततः पश्यन्परत्वेन च तत्परम् । परत्यागे मतिं कुर्या: कार्यैरन्यैः किमस्थिरैः ।।१८।। ज्ञान-दर्शनस्वरूपी आत्मा को निजरूप से तथा आत्मा से भिन्न अन्य वस्तुओं को पररूप जानते हुए परवस्तुओं का त्याग करो; क्योंकि पर वस्तुओं से सम्बन्धित अन्य नश्वर कार्यों से आत्मा का कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। १०६. शरीर का निन्द्य स्वरूप और अज्ञानी का मोह -
पृथक्चेदङ्गनिर्माणं चर्ममांसमलादिकम्।
सजुगुप्सेऽत्र तत्पुञ्ज मूढात्मा हन्त मुह्यति ।।३७।। बाहर से सुन्दर दिखनेवाले इस शरीर की रचना यदि अलग-अलग की जाए तो इसमें चमड़ा, मांस और मलादि अपवित्र पदार्थों के ही दर्शन होंगे; परन्तु अत्यन्त खेद की बात है कि इस चमड़ा, मांस एवं मलादि के पिण्डरूप शरीर पर अज्ञानी जीव मोहित होता है। १०७. शरीर सम्बन्धी मोह पर विचार -
दुर्गन्धमलमांसादिव्यतिरिक्तं विवेचने। नेक्षते जातु देहेऽस्मिन्मोहे को हेतुरात्मनाम् ।।३८।।
आत्मा के अलग होने पर इस शरीर में दुर्गन्धित मल-मांसादिक के अतिरिक्त अन्य कुछ भी देखने में नहीं आता; फिर भी प्राणियों को शरीर से मोह क्यों होता है? इसका विचार करना चाहिए। १०८. शरीर सम्बन्धी मोह का कारण -
अज्ञानमशुचेर्बीजं ज्ञात्वा व्यूहं च देहकम्।
आत्मात्र सस्पृहो वक्ति कर्माधीनत्वमात्मनः ।।३९।। यह शरीर ज्ञानरहित, अपवित्रता का कारण और हिताहित के विचार से रहित है - ऐसा जानकर भी आत्मा शरीर से राग करता है, इससे तो आत्मा का कर्माधीनपना ही प्रतिलक्षित होता है। १०९. स्त्री-पुरुष के सान्निध्य का सामान्य स्वरूप -
अङ्गारसदृशी नारी नवनीतसमा नराः। तत्तत्सान्निध्यमात्रेण द्रवेत्पुसां हि मानसम् ।।४१।। स्त्री जलते हुए कोयले के समान है और पुरुष मक्खन के समान है । जैसे अग्नि के समक्ष मक्खन सहज ही पिघल जाता है; वैसे ही स्त्री के समीप होने पर पुरुष सहज ही कामातुर हो जाता है; अत: पुरुषों को स्त्रियों से दूर रहना ही उचित है। ११०. स्त्रियों के संसर्ग से दूर ही रहना -
संलापवासहासादि तद्वयं पापभीरुणा । बालया वृद्धया मात्रा दुहित्रा वा व्रतस्थया ।।४२।। पाप से भयभीत विवेकशील पुरुषों को बालिका, युवती, वृद्ध स्त्री ही नहीं; अपनी माता, पुत्री तथा व्रतधारिणी ब्रह्मचारिणी, आर्यिकादि से भी एकान्त में निरर्थक वार्तालाप, हँसी-मजाकादि नहीं करना चाहिए। १११. विद्वान-अविद्वान का स्वरूप -
नभश्चर कश्चित्स्याद्विपश्चिदविपश्चितोः । विनिश्चलशुचोर्भेदो यतश्चन कुतश्चन ।।५६।। जीवन्धरकुमार आसक्त विद्याधर को समझाते हैं - हे विद्याधर ! १)विद्वज्जन विपत्ति आने पर भी धैर्य धारण करते हैं और विशेष लाभ होने पर गर्व नहीं करते हैं। २) मूर्ख लोग अल्प आपत्ति से ही अधीर हो जाते हैं और अल्प लाभ में ही फूल जाते हैं। विद्वान और अविद्वान में यही अन्तर है। ११२. पातिव्रत्य की दुर्लभता -
परं सहस्रधीभाजि स्त्रीवर्गे का पतिव्रता।
पातिव्रत्यं हि नारीणां गत्यभावे तु कुत्रचित् ।।५७।। हजारों प्रकार की विलक्षण बुद्धि की धारक स्त्रीसमूह में पातिव्रत्य कहाँ रहेगा? अर्थात् ऐसी स्थिति में पातिव्रत्य अत्यन्त दुर्लभ है। वास्तव में देखा जाए तो सरलता से भ्रष्ट होने के अवसर न मिलने के कारण हजारों स्त्रियों में पातिव्रत्य