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लम्ब२
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सूक्तिसंग्रह न हि वारयितुं शक्यं दुष्कर्माल्पतपस्यया। विस्फुलिङ्गेन किंशक्यं दग्धुमार्द्रमपीन्धनम् ।।१२।। जैसे अग्नि की अल्प चिंगारी गीले ईन्धन को जलाने में समर्थ नहीं है; वैसे ही अल्प तपश्चर्या महान पापकर्म का निवारण करने में समर्थ नहीं। ३१. धर्मात्मा ही धर्मात्माओं के सहायक -
धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिका एव नापरे ।
अहेर्नकुलवत्तेषां प्रकृत्यान्ये हि विद्विषः ।।१७।। धर्मात्मा ही धर्मात्माओं के सहायक होते हैं, अन्य नहीं । जैसे नेवला सर्प का स्वभाव से ही वैरी होता है, वैसे ही अधार्मिक, धार्मिक जनों के वैरी होते हैं। ३२. ज्ञानदान का स्वरूप और फल -
विद्या हि विद्यमानेयं वितीर्णापि प्रकृष्यते।
नाकृष्यते च चौराद्यैः पुष्यत्येव मनीषितम् ।।२५।। किसी को भी विद्या देने से वह घटती नहीं है; अपितु बढ़ती ही है। उस विद्या को चोर लूट नहीं सकते, बन्धु-बान्धव उसमें से हिस्सा नहीं बाँट सकते; वह विद्या तो अपने इच्छित कार्यों को पूर्ण ही करती है। ३३. विद्वत्ता से लौकिक अनुकूलताएँ -
वैदुष्येण हि वंश्यत्वं वैभवं सदुपास्यता।
सदस्यतालमुक्तेन विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।२६।। विद्वत्ता से मनुष्य को कुलीनता, धन-सम्पत्ति, सज्जनता और सज्जन पुरुषों द्वारा सम्मान मिलता है। अधिक कहने से क्या लाभ ? विद्वान सब जगह पूजा जाता है। ३४. विद्वत्ता मोक्ष का भी कारण -
वैपश्चित्यं हि जीवानामाजीवितमनिन्दितम् ।
अपवर्गेऽपि मार्गोऽयमदः क्षीरमिवौषधम् ।।२७।। विद्वत्ता मनुष्यों के लिए जीवनभर प्रतिष्ठा देनेवाली तो होती ही है, साथ ही जिसप्रकार दूध शरीर के लिए पौष्टिक होने के साथ ही औषधिस्वरूप है; उसीप्रकार विद्वत्ता लौकिक कार्यों को साधती हुई मोक्ष के कारणस्वरूप भी है।
३५. सच्चे गुरु का स्वरूप -
रत्नत्रयविशुद्धः सन्पात्रस्नेही परार्थकृत् ।
परिपालितधर्मो हि भवाब्धेस्तारको गुरुः ।।३०।। जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय' के धारक हैं, सज्जन हैं, निष्पृह भाव से योग्य शिष्यों पर स्नेह रखते हैं, परोपकारी हैं,धर्म का पालन करते हैं तथा संसाररूपी समुद्र से पार लगाते हैं; वे ही सच्चे गुरु हैं। ३६. सच्चे शिष्य का स्वरूप -
गुरुभक्तो भवाद्धीतो विनीतो धार्मिक:सुधीः ।
शान्तस्वान्तो हातन्द्रालु: शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते॥३१।। जो गुरुभक्त, संसार से भयभीत, विनयशील, धर्मात्मा, तीव्रबुद्धि, शान्तचित्त, आलस्यरहित और उत्तम आचरणवाला होता है, उसे ही सच्चा शिष्य कहते हैं। ३७. गुरु-भक्ति मुक्ति का भी कारण -
गुरुभक्ति: सती मुक्त्यै क्षुद्रं किंवा न साधयेत् ।
त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभः किं तुषोत्कटरः।।३२।। जिसप्रकार तीन लोक की कीमत वाले अमूल्य रत्न से भूसे का ढेर खरीदना कोई बड़ी बात नहीं है; उसीप्रकार जो सच्ची गुरु-भक्ति परम्परा से मुक्ति की प्रप्ति करा देती है, उससे अन्य लौकिक कार्यों की सिद्धि हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। ३८. गुरुद्रोह से विद्या का नाश -
गुरुद्रुहां गुण: को वा कृतघ्नानां न नश्यति । विद्यापि विद्युदाभाः स्यादमूलस्य कुत: स्थितिः।।३३।। जिसप्रकार बिना जड़ के वृक्ष की स्थिति सम्भव नहीं है; उसीप्रकार गुरु से द्रोह करनेवाले और गुरु का उपकार न माननेवाले के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। उनकी तो विद्या भी बिजली की तरह क्षणस्थायी हो जाती है; क्योंकि यह परम सत्य है कि बिना जड़वाले पदार्थ की स्थिति नहीं रहती।