________________
२८
सूक्तिसंग्रह २३९. भेजे शुभनिमित्तेन सनिमित्ता हि भाविनः ।।५/४२ ।।
भविष्य में होनेवाले उत्तम कार्य शुभ निमित्तपूर्वक होते हैं। २४०, भेतव्यं खलु भेतव्यं प्राज्ञैरज़ोचितात्परम् ।।७/४३ ।।
अज्ञानियों के उचित कार्यों से ज्ञानी मनुष्यों को भयभीत रहना चाहिए। २४१. भाव्यवश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते ।।१०/४९ ।।
भविष्य में जो कुछ होनेवाला है, वह होकर ही रहता है; किसी से भी टाला नहीं जा सकता।
'म' २४२. मत्सराणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्यचिन्तनम् ।।१०/३५ ।।
ईर्ष्यालु मनुष्यों के वस्तुस्वरूप का विचार नहीं होता। २४३. मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम् ।।३/२६ ।।
मोहकर्म रहने तक बीच-बीच में योगियों के परिणामों में भी चंचलता
रहती है। २४४. मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम् ।।१/४३ ।।
पापियों के मन में कुछ होता है, वचन में कुछ अन्य तथा वे शरीर से कुछ
दूसरा ही कार्य करते हैं। २४५. मनीषितानुकूलं हि प्रीणयेत्प्राणिनां मनः ।।९/२९ ।।
मनोरथ के अनुकूल उपाय को दिखाना ही प्राणियों केमन को प्रसन्न करता है। २४६. मनोरथेन तृप्तानां मूललब्धौ तु किं पुनः ।।९/३० ।।
मनोरथ से सन्तुष्ट होनेवाले मनुष्यों को यदि मूल पदार्थ मिल जाए तो फिर
कहना ही क्या है ? २४७. ममत्वधीकृतो मोहः सविशेषो हि देहिनाम् ।।८/६४ ।।
ममत्व बुद्धि से प्राणियों को मोह अधिक होता है। २४८. मरुत्सखे मरुद्भूते मह्यां किं वा न दहाते ।।१०/३३ ।।
हवा से प्रज्ज्वलित अग्नि के होने पर पृथ्वी पर कौन-कौनसी वस्तुएँ नहीं
जल जाती। २४९. महिषैः क्षुभितं तोयं न हि सद्यः प्रसीदति ।।१०/५७।।
भैंसों द्वारा गन्दा किया गया जल शीघ्र स्वच्छ नहीं होता। २५०, माणिक्यस्य हि लब्धस्य शुद्धर्मोदो विशेषतः ।।२/२९ ।।
प्राप्त हुई मणि की उत्तमता के निर्णय से विशेष हर्ष होता है। २५१. मात्सर्यात्किंन नश्यति ।।४/१७।।
ईर्ष्याभाव से क्या नष्ट नहीं होता? २५२. मायामयी हि नारीणांमनोवृत्तिनिसर्गतः ।।७/४९।।
स्त्रियों की मनोवृत्ति स्वभाव से ही मायामयी होती है। २५३. मित्रं धात्रीपतिं लोके कोऽपरः पश्यत: सुखी ।।३/३६ ।।
संसार में मित्रस्वरूप राजा को देखनेवाले की अपेक्षा दूसरा कौन सुखी हो
सकता है? २५४. मुक्तिद्वारकवाटस्य भेदिना किंन भिद्यते ।।६/३६ ।।
मोक्ष के द्वार खोलनेवाले के द्वारा किसका भेदन नहीं किया जा सकता? २५५. मुक्तिप्रदेन मन्त्रेण देवत्वं न हि दुर्लभम् ।।४/१३ ।।
मुक्ति-प्रदाता महामन्त्र से देवपना प्राप्त होना दुर्लभ नहीं है। २५६. मुखदानं हि मुख्यानां लघूनामभिषेचनम् ।।७/९ ।।
महापुरुषों का सामान्य व्यक्ति से प्रीतिपूर्वक बोलना उनके राज्याभिषेक के
समान होता है। २५७. मुग्धाः श्रुतविनिश्चेया न हि युक्तिवितर्किणः ।।८/५८।।
भोले मनुष्य सुनने से बात का निश्चय करनेवाले होते हैं; तर्क और युक्तियों
से विचार करनेवाले नहीं। २५८. मुग्धेष्वतिविदग्धानां युक्तं हि बलकीर्तनम् ।।८/५७।।
बुद्धिमानों का भोले मनुष्यों के सामने बलादि गुणों की प्रशंसा करना
उचित है। २५९. मूढानां हन्त कोपाग्निरस्थानेऽपि हि वर्धते ।।५/७।।