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________________ पूर्वरंग देहादि सम्बन्धी अतिशयों में भी आत्मा का पुण्योदय निमित्त होता है। अत: देहादि के आधार पर की गई स्तुति को सर्वथा नकारना सम्भव नहीं है। दूसरी बात यह है कि भक्तजनों को अमूर्तिक आत्मा तो दिखाई देता नहीं हैउन्हें तो उस देह के ही दर्शन होते हैं, जिसमें वह भगवान आत्मा विराजमान है। अत: व्यवहार से उस देहदर्शन को ही देवदर्शन कहते हैं। कथं शरीरस्तवनेन तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यते इति चेत् - णयरम्मि वण्णिदेजह ण विरण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होति ॥३०॥ नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति । देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणा: स्तुता भवन्ति ।।३०।। तथा हि (आर्या) प्राकारकवलितांबरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्। पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम् ।।२५।। अरहन्त भगवान की दिव्यध्वनि से भी भव्यजीवों को धर्मलाभ होता है, देशना प्राप्त होती है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में देशनालब्धि आवश्यक मानी गई है। __अत: देवदर्शन और दिव्यध्वनिश्रवण के लाभ को ध्यान में रखकर ही देहादि को आधार बनाकर देवाधिदेव अरहन्त देव की स्तुति की जाती है; पर वह है तो पराश्रित व्यवहार ही, उसे निश्चय के समान सत्यार्थ स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यहाँ एक प्रश्न यह भी सम्भव है कि जब शरीर में ही भगवान आत्मा विराजता है, एकप्रकार से जब वह शरीर का अधिष्ठाता ही है; तब निश्चय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन क्यों नहीं हो सकता ? इसी प्रश्न के उत्तर में ३०वीं गाथा का जन्म हुआ है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह । केवली-वन्दन नहीं है देह-वन्दन उसतरह ।।३०।। जिसप्रकार नगर का वर्णन करने पर भी, वह वर्णन राजा का वर्णन नहीं हो जाता; उसीप्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं हो जाता।। उक्त गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने विशेष कुछ नहीं लिखा है; पर नगर वर्णन और जिनेन्द्र वर्णन के सन्दर्भ में नमूने के रूप में दो आर्या छन्द अवश्य लिखे हैं और अन्त में लिख दिया है कि जिसप्रकार नगर का वर्णन करने से उसके अधिष्ठाता राजा का वर्णन नहीं हो जाता, उसीप्रकार शरीर की स्तुति करने से उसके अधिष्ठाता तीर्थंकर भगवान की स्तुति भी नहीं हो सकती है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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