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जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान अमृत भरें । उन सहस अठ लक्षण सहित जिन - सूरि को वन्दन करें ।। २४ ।। नैवं, नयविभागानभिज्ञोऽसि ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि
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ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ।। २७ ।।
व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः ।
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थ: ।। २७ ।।
वे तीर्थंकर और आचार्यदेव वन्दना करने योग्य हैं, जो कि अपने शरीर की कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं, निर्मल करते हैं; अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिक को भी ढक देते हैं; अपने रूप से जन-जन के मन को मोह लेते हैं, हर लेते हैं; अपनी दिव्यध्वनि से भव्यजीवों के कानों में साक्षात् सुखामृत की वर्षा करते हैं तथा एक हजार आठ लक्षणों को धारण करते हैं । तीर्थंकरों और आचार्यों की देह को आत्मा नहीं मानने पर इसप्रकार की गई स्तुति मिथ्या सिद्ध होगी । इसलिए हमारा तो पक्का यही निश्चय है कि पुद्गलद्रव्य रूप शरीर ही आत्मा है।
इसप्रकार नयविभाग से अपरिचित अप्रतिबुद्ध शिष्य ने अद्यावधि उपलब्ध स्तुति साहित्य को आधार बनाकर देह में अनादिकालीन एकत्वबुद्धि का ही पोषण किया है।
ये शारीरिक गुण जिन जिनराज तीर्थंकर भगवान के व्यवहार से बताये गये हैं; यदि निश्चय से विचार करें तो ये शारीरिक गुण जिनराज के नहीं हैं, तीर्थंकर भगवान के नहीं हैं, भगवान आत्मा के नहीं हैं।
अप्रतिबुद्ध के उक्त कथन के उत्तर में आचार्य अमृतचन्द्र की लेखनी से एक ही वाक्य प्रस्फुटित होता है कि – “ऐसा नहीं है, तुम नयविभाग से अनभिज्ञ हो, नयविभाग को नहीं जानते हो ।' इसकारण ही ऐसी बातें करते हो। मूल समस्या नयविभाग से अनभिज्ञता की ही है। नयविभाग को समझे बिना देह में एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धिरूप अज्ञान का, अगृहीत मिथ्यात्व का पोषण हो जाता है। अतः नयों का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है, नयविभाग का जानना अत्यन्त आवश्यक है।
वह नयविभाग क्या है ? - इसके उत्तर में ही २७वीं गाथा का अवतार हुआ है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
'देह-चेतन एक हैं' 'ये एक हो सकते नहीं'
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यह वचन है व्यवहार का ।
समयसार
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यह कथन है परमार्थ
२ ७ ।।