SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार टीका में गाथा का भाव एकदम स्पष्ट हो गया है; क्योंकि इसमें स्फटिक पाषाण, हाथी आदि पशु, नमक के पानी तथा प्रकाश और अन्धकार का उदाहरण देकर बात को एकदम सरल एवं बोधगम्य बना दिया गया है। ६४ - आत्मानुभव की पावन प्रेरणा देनेवाले उस कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का । हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ।। बभिन्न पर से सुशोभित लख स्वयंको तब शीघ्र ही । तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ।। २३ ।। अरे भाई ! किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी निजात्मतत्त्व का कौतूहली होकर इन शरीरादि मूर्त द्रव्यों का एक मुहूर्त को पड़ौसी बनकर आत्मा का अनुभव कर; जिससे तू अपने आत्मा के विलास को सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर, इन शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यों के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा । ! आचार्यदेव करुणा से अत्यन्त विगलित होकर मर्मस्पर्शी कोमल शब्दों में समझा रहे हैं कि अरे भाई ! मरणतुल्य कष्ट हो तो भी एकबार पर से भिन्न अपने आत्मा को समझने का उग्र पुरुषार्थ करो । अबतक तो तुमने देह में एकत्वबुद्धि की है, अहंबुद्धि की है, ममत्वबुद्धि की है, स्वामित्वबुद्धि की है; पर इससे अनन्तदुःखों के अलावा तुम्हें क्या मिला ? एकबार इस बात पर गम्भीरता से विचार करो और एकबार इस देह का पड़ौसी बनकर देखो तो तुम्हारा इसमें जो एकत्व का मोह है, वह अवश्य ही टूट जायेगा, छूट जायेगा और अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका जगेगी; जो आगे जाकर आनन्द के सागर में परिणमित हो जायेगी । जिसप्रकार हम पड़ौसी को अपना भी नहीं मानते और उससे असद्व्यवहार भी नहीं करते; उसीप्रकार इस देह में एकत्वबुद्धि भी नहीं रखना और इससे असद्व्यवहार भी नहीं करना । इससे पड़ौसी धर्म तो निभाना, पर इसे अपने घर में नहीं बिठा लेना । हमें पक्का विश्वास है कि यदि तुम एकबार भी परद्रव्यों से भिन्न अपने भगवान आत्मा का विलास देखोगे, वैभव देखोगे तो अवश्य ही पर से एकत्व के मोह को छोड़ दोगे । अतः भाई ! तुम हमारी बात सुनो और एकबार आत्मतत्त्व के कौतूहली बनकर उसे देह से भिन्न अनुभव करो; तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । यदि पड़ौसी का जीवन खतरे में हो तो हम उसकी सुरक्षा करते हैं, उसे जीवनयापन में सह सहयोग करते हैं; पर इसके लिए अपना जीवन बरबाद नहीं करते, उसके लिए भोगसामग्री नहीं जुटाते । इसीप्रकार इस देह की सुरक्षा के लिए शुद्धसात्त्विक आहार का ग्रहण अवश्य करो; पर इसके पीछे अभक्ष्यादि का भक्षण कर नरक - निगोद जाने की तैयारी मत करो । इसे शत्रु भी मत मानो, इससे शत्रु जैसा व्यवहार भी मत करो और घरवाला भी मत मानो, घरवालों जैसा भी व्यवहार न करो। बस, पड़ौसी जैसा व्यवहार करो - यही उचित है ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy