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________________ पूर्वरंग अब आचार्य अमृतचन्द्र कलश के माध्यम से प्रेरणा देते हैं कि हे जगतजनो! पर से एकत्व का मोह अब तो छोड़ो; क्योंकि यह आत्मा, अनात्मा के साथ कभी भी एकत्व को प्राप्त नहीं होता। अथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवसाय: क्रियते - अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो ।।२३।। सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्वं । कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ।।२४।। जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ।।२५।। अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलं द्रव्यम्। बद्धमबद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ।।२३।। सर्वज्ञज्ञानदृष्टो जीव उपयोगलक्षणो नित्यम् । कथं स पुद्गलद्रव्यीभूतो यद्भणसि ममेदम् ।।२४।। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो।। तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।। हे जगत के जीवो ! अनादि से लेकर आजतक अनुभव किये गये मोह को कम से कम अब तो छोड़ो और रसिकजनों को रुचिकर उदित ज्ञान का आस्वादन करो; क्योंकि आत्मा इस लोक में किसी भी स्थिति में अनात्मा के साथ तादात्म्य को धारण नहीं करता, पर के साथ एकमेक नहीं होता। ___ 'रसिकजन' शब्द का अर्थ कलशटीकाकार ने शुद्धस्वरूप का अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुष किया है। इसप्रकार इस कलश में पर के साथ एकत्व के मोह को तोड़ने एवं अपने में एकत्व स्थापित करने की प्रेरणा देकर आचार्यदेव अब आगामी गाथाओं में तर्क से, युक्ति से इसी बात को समझाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय। अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहे ।।२३।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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