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समयसार अब आचार्यदेव कलशरूप काव्य लिखते हैं। ये सत्तरह-अठारहवीं गाथाएँ भी ऐसी गाथाएँ हैं कि जिनकी टीका के बीच में ही आचार्य अमृतचन्द्र ने कलशरूप काव्य लिखा है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(मालिनी) कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् । सतत-मनुभवामो-ऽनंत-चैतन्य-चिह्न
नखलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।। ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञानं नित्यमुपास्त एव, कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्, तन्न, यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादात्म्येऽपि क्षणमपिज्ञानमुपास्ते, स्वयंबुद्धबोधितबुद्धत्वकारणपूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञान एवात्मा नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वात् ? एवमेतत् ।
(हरिगीत ) त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को।। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का।
क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना ।।२०।। यद्यपि जिसने किसी भी प्रकार से तीनपने को अंगीकार किया है, तथापि जो एकत्व से च्युत नहीं हुई है, निर्मलता से उदय को प्राप्त है और अनन्तचैतन्य है चिह्न जिसका; ऐसी आत्मज्योति का हम निरन्तर अनुभव करते हैं; क्योंकि उसके अनुभव के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती - ऐसा आचार्यदेव कह रहे हैं।
आचार्य अमतचन्द्र ने आत्मानभव की पावन प्रेरणा से परिपूर्ण यह कलश लिखने के बाद जो टीका लिखी है, उसका भाव इसप्रकार है -
"प्रश्न - आत्मा तो ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; अत: वह ज्ञान की उपासना निरन्तर करता ही है। फिर भी उसे ज्ञान की उपासना करने की प्रेरणा क्यों दी जाती है ?
उत्तर - ऐसी बात नहीं है। यद्यपि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्यस्वरूप है; तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नहीं करता; क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति या तो स्वयंबुद्धत्व से होती है या फिर बोधितबुद्धत्व से होती है। तात्पर्य यह है कि या तो काललब्धि आने पर स्वयं ही जान ले या फिर कोई उपदेश देनेवाला मिल जाये, तब जाने।
प्रश्न - तो क्या आत्मा तबतक अज्ञानी ही रहता है, जबतक कि वह या तो स्वयं नहीं जान लेता या फिर किसी के द्वारा समझाने पर नहीं जान लेता ?
उत्तर - हाँ, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि उसे अनादि से सदा अप्रतिबुद्धत्व ही रहा है, अज्ञानदशा ही रही है।"