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________________ परिशिष्ट ६०१ सम्प्रदानशक्ति अपने द्वारा दिये जानेवाले भाव की उपेयत्वमयी है और अपादानशक्ति उत्पाद-व्यय से आलिंगित भाव से नाश होने से हानि को प्राप्त न होनेवाली ध्रुवत्वमयी है। यहाँ कारक संबंधी छह शक्तियों की चर्चा चल रही है। सामान्यत: छह कारकों का स्वरूप इसप्रकार है- जो कार्य को करता है, वह कर्ता नामक कारक है और जो कार्य है, वह कर्मकारक है। जिसके द्वारा कार्य हो, वह साधन करण कारक कहा जाता है। कार्य का लाभ जिसे प्राप्त हो, वह सम्प्रदान कारक है और कार्य जिसमें से उत्पन्न हो, वह अपादान कारक कहा जाता है तथा कार्य के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि इन शक्तियों के प्रकरण में निर्मलपर्यायरूप क्रिया को शामिल किया जाता है। अत: अब प्रश्न यह है कि सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायों का कर्ता कौन है. कर्म कौन है. उन्हें प्राप्त करने का साधन क्या है, वे निर्मल पर्यायें प्राप्त किसको होंगी, वे कहाँ से आयेंगी और उनका आधार कौन है ? कर्ताशक्ति में यह बताया गया है कि उनका कर्ता यह भगवान आत्मा स्वयं है; क्योंकि इसमें एक कर्ता नाम का गुण (शक्ति) है; जिसके कारण यह आत्मा स्वयं ही उक्त निर्मलपर्यायोंरूप परिणमित होता है। कर्मशक्ति में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा का निर्मल परिणाम ही आत्मा का कर्म है। करणशक्ति में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को सम्यग्दर्शन आदि निर्मल पर्यायों की प्राप्ति के लिए अन्य साधनों की अपेक्षा नहीं है; क्योंकि आत्मा में एक करण नामक गुण (शक्ति) है, जिसके द्वारा आत्मा इन्हें प्राप्त करता है, कर सकता है। अब सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति में यह बताया जा रहा है कि उक्त निर्मल पर्यायें आत्मा के लिए हैं, आत्मा को प्राप्त होती हैं और आत्मा में से प्रगट होती हैं। अपादानशक्ति के कारण आत्मा में से ही प्रगट होती हैं और सम्प्रदानशक्ति के कारण आत्मा के लिए ही हैं। सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायें आत्मा के लिए आत्मा में से प्रगट होकर स्वयं आत्मा को ही प्राप्त होती हैं - ऐसी अद्भुत वस्तुस्थिति है। उक्त दोनों शक्तियों के स्पष्टीकरण में यह बताया गया है कि आत्मा का ज्ञान, आनन्द आत्मा में से ही आता है और आत्मा को ही दिया जाता है। दातार भी आत्मा और दान को ग्रहण करनेवाला भी आत्मा। ज्ञान और आनन्द न तो पर में से आते हैं और न पर को दिये ही जाते हैं । इसीप्रकार यह आत्मा न तो इन ज्ञान और आनन्द को पर से ग्रहण करता है और न ही पर को दे ही सकता है। जो कुछ भी इसका लेना-देना होता है, वह सब अपने अन्दर ही होता है, अन्तर में ही होता है। इन ज्ञान और आनन्द का पर से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इन दोनों शक्तियों के कारण यह भगवान आत्मा अनन्तकाल तक स्वयं ही स्वयं को आनन्द देता रहेगा और स्वयं ही आनन्द लेता भी रहेगा। यह लेन-देन कभी समाप्त नहीं होनेवाली अद्भुत क्रिया है, प्रक्रिया है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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