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समयसार
अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है। ___ यथा चापां सप्तार्चि:प्रत्ययोष्णसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांतत: शीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांतत: स्वयं बोधं जीवस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् ॥१४॥
(मालिनी) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरंतोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात्
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावमाशा (५) जिसप्रकार अग्नि जिसका निमित्त है - ऐसी उष्णता के साथ संयुक्ततारूप - तप्ततारूप अवस्था से जल का अनुभव करने पर जल की उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि एकान्त शीतलतारूप जलस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर उष्णता के साथ जल की संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
उसीप्रकार कर्म जिसका निमित्त है - ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से आत्मा का अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जो स्वयं एकान्त बोधरूप है, ज्ञानरूप है - ऐसे जीवस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।"
छठवीं-सातवीं गाथा में दृष्टि के विषयभूत जिस शुद्धात्मा का प्रतिपादन किया गया था, उसे ही यहाँ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त विशेषणों से समझाया गया है। ____ अब आगामी कलश में इसी शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं। मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ।। जो है प्रकाशित चतुर्दिक् उस एक आत्मस्वभाव का।
हे जगतजन! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो।।११।। ये बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव जिस आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करते, मात्र ऊपरऊपर ही तैरते हैं और जो आत्मस्वभाव चारों ओर से प्रकाशमान है अर्थात् सर्व-अवस्थाओं में प्रकाशमान है; आत्मा के उस सम्यक्स्वभाव का हे जगत के प्राणियो ! तुम मोहरहित होकर अनुभव करो।
उक्त छन्द में शुद्धनय के विषयभूत बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से रहित, अपनी समस्त अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक् आत्मस्वभाव के अनुभव करने की प्रेरणा दी गई है और यह भी कहा गया है कि शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा के अतिरिक्त जो बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव हैं, उनसे