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परिशिष्ट __स्वयंप्रकाशमानविशदस्वसंवित्तिमयी प्रकाशशक्तिः । क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असंकुचितविकाशत्वशक्तिः।।
इस स्वच्छत्वशक्ति का स्वरूप ख्याल में आये तो कमाल हो जाये; पर के जानने से ज्ञान मलिन हो जायेगा, मेचक हो जायेगा, अनेकाकार हो जायेगा - इसप्रकार की आकुलता ही नहीं होगी। इसीकारण पर के जानने को मिथ्यात्व कहना भी सहज संभव न रहेगा। स्वच्छत्वशक्ति की चर्चा के उपरान्त अब प्रकाशशक्ति की चर्चा करते हैं -
१२. प्रकाशशक्ति इस बारहवीं प्रकाशशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
जो स्वयंप्रकाशमान है, विशद, स्पष्ट और निर्मल स्वसंवेदनमय स्वानुभव से युक्त है; वह प्रकाशशक्ति है।
११ वीं स्वच्छत्वशक्ति में इस बात पर वजन दिया गया है कि यह आत्मा लोकालोक को जाने अथवा लोकालोक इसके ज्ञान में झलकें - ऐसा इसका स्वभाव है। अब इस १२ वीं प्रकाशशक्ति में यह कहा जा रहा है कि न केवल लोकालोक को, अपितु स्वयं को स्पष्टरूप से जाने अर्थात् आत्मा का अनुभव करे - ऐसी भी एक शक्ति आत्मा में है, जिसका नाम है प्रकाशशक्ति।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि लोकालोक में अपना आत्मा भी तो आ गया; अत: स्वच्छत्वशक्ति के कारण वह भी आत्मा के ज्ञानस्वभाव में, स्वच्छस्वभाव में झलक जायेगा, जान लिया जायेगा। उसके लिए अलग से इस प्रकाशशक्ति की क्या आवश्यकता है?
अरे भाई ! यह प्रकाशशक्ति स्वसंवेदनमयी है, स्वच्छत्वशक्ति स्वसंवेदनमयी नहीं है। परपदार्थ तो मात्र आत्मा में देखे-जाने ही जाते हैं; किन्तु अपने भगवान आत्मा का अनुभव किया जाता है। वह अनुभव स्वसंवेदनमयी प्रकाशशक्ति का ही कार्य है।
इस शक्ति की श्रद्धा और ज्ञान होने से आत्मानुभव के लिए पर के सहयोग की आकांक्षा से उत्पन्न होनेवाली आकुलता का अभाव होकर निराकुल शान्ति की प्राप्ति होती है।
शशक्ति की चर्चा करने के उपरान्त अब असंकुचितविकासत्वशक्ति की चर्चा करते हैं -
१३. असंकुचितविकासत्वशक्ति इस तेरहवीं असंकुचितविकासत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
असंकुचितविकासत्वशक्ति क्षेत्र और काल से अमर्यादित चिद्विलासात्मक (चैतन्य के विलासस्वरूप) है।
अनंत शक्तियों से सम्पन्न इस भगवान आत्मा में एक शक्ति ऐसी भी है कि जिसके कारण यह आत्मा बिना किसी संकोच के पूर्णरूप से विकसित होता है । तात्पर्य यह है कि इस भगवान आत्मा का प्रत्येक गुण पर्याय में निर्मलता के साथ-साथ पूर्णता को भी प्राप्त होता है। ज्ञानगुण केवलज्ञानरूप परिणमित होता है, श्रद्धागुण क्षायिकसम्यक्त्वरूप परिणमित होता है।