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________________ समयसार ५७८ स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः। प्रश्न : इस सुखशक्ति के जानने से क्या लाभ है ? उत्तर : अनादि से यह आत्मा परपदार्थों में ही सुख जानता-मानता रहा है; परपदार्थों में ही सुख की खोज करता रहा है; तथापि आजतक उसे रंचमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं हुई है; इसीकारण आकुल-व्याकुल हो रहा है। इस सुखशक्ति के स्वरूप को समझने से इसे यह पता चलेगा कि यह भगवान आत्मा तो स्वयं सुख का पिण्ड है, आनन्द का कंद है; सुख प्राप्ति के लिए इसे पर की ओर देखने की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। दसरे यह आत्मा जिन शभभावों और पण्यकर्म को सख का कारण जानकर आज तक अपनाता रहा है। वे सुख के कारण नहीं हैं, सुख का कारण तो स्वयं अपना आत्मा है - यह जानकर अपने उपयोग को वहाँ से हटाकर अपने आत्मा के सम्मुख करेगा। इसप्रकार इस सुखशक्ति को समझने के उपरान्त अब वीर्यशक्ति की चर्चा करते हैं - ६. वीर्यशक्ति वीर्यशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार समझाया गया है - स्वरूप की रचना की सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति है। ___ जब यह भगवान आत्मा अरहंत-सिद्धदशा को प्राप्त हो जाता है; तब उसके अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य प्रगट हो जाते हैं। इन्हें अनंतचतुष्टय कहते हैं। ___ उक्त अनंतचतुष्टय दृशिशक्ति, ज्ञानशक्ति, सुखशक्ति और वीर्यशक्ति का ही परिपूर्ण प्रस्फुटन है। वैसे तो अरहंत-सिद्ध अवस्था में सभी शक्तियाँ पूर्णतः प्रस्फुटित हो जाती हैं, पूर्ण निर्मलदशा को प्राप्त हो जाती हैं; तथापि प्रमुखरूप से अनंतचतुष्टय के रूप में उल्लेख उक्त शक्तियों के निर्मल परिणमन का ही होता रहा है। ज्ञान-दर्शन तो आत्मा का लक्षण है और सुख एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी कामना सभी को है तथा वीर्यशक्ति के बिना इनकी रचना कौन करेगा; क्योंकि प्रत्येक वस्तु के स्वरूप की रचना करनेवाली अर्थात् उनके निर्मल परिणमन में हेतु तो यही वीर्यशक्ति है। इसप्रकार ये चार शक्तियाँ अनंतचतुष्टय के रूप में उल्लसित होती हैं। प्रस्फुटित होती हैं, उछलती हैं। यही कारण है कि इनका निरूपण आरंभ में ही किया गया है। जीवत्वशक्ति तो जीव का जीवन ही है और चितिशक्ति उसके चेतनत्व को कायम रखनेवाली शक्ति है। चितिशक्ति के ही दो रूप हैं - ज्ञान और दर्शन; जो आत्मा के लक्षण हैं। जिसके अतीन्द्रिय सुखरूप परिणमन की चाह सभी को है, वह अनाकुलत्वलक्षण सुखशक्ति आनन्दरूप है। इनके निरूपण के उपरान्त वीर्यशक्ति का निरूपण क्रमप्राप्त ही है; क्योंकि अनन्तचतुष्टय में तीन चतुष्टय तो आरंभ की पाँच या तीन शक्तियों में ही समाहित हो गये हैं; अब इस वीर्यशक्ति के निरूपण से हमारे लिए परम इष्ट अनन्त चतुष्टय पूर्ण हो जायेंगे।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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