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परिशिष्ट
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(१३-१४) यदाऽनित्यज्ञानविशेषैः खंडितनित्यज्ञानसामान्यो नाशमुपैति, तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन्ननेकांत एव तमुज्जीवयति ।
यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा ज्ञानविशेषरूपेणानित्यत्वं द्योतयन्ननेकांत एव नाशयितुं न ददाति ।
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(१३-१४) नित्य - अनित्य • अब नित्य और अनित्य संबंधी तेरहवें और चौदहवें भंग की चर्चा करते हैं। आत्मख्याति में इन भंगों का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है.
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जब यह ज्ञानमात्रभाव अनित्य ज्ञानविशेषों के द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य स्वभाव को खण्डित हुआ मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का ज्ञानसामान्यरूप से नित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता ।
जब यह ज्ञानमात्रभाव नित्य ज्ञानसामान्य का ग्रहण करने के लिए अनित्य ज्ञानविशेषों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का ज्ञानविशेषरूप से अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता ।
आत्मख्याति की आरम्भिक चार पंक्तियों में सामान्यतः सभी पदार्थों पर अस्तित्व और नास्तित्व को घटित किया गया है, परस्पर विरोधी दिखनेवाले धर्मों का एक वस्तु में, एकसाथ रहना दिखाया गया है ।
सर्वप्रथम यह कहा गया है कि यह विश्व अनन्त पदार्थों का समुदायरूप है। इसमें अनन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्यात कालाणुकालद्रव्य - इसप्रकार अनंतानंत पदार्थों का समूहरूप जो विश्व है, वह सामान्य सत्ता की अपेक्षा, महासत्ता की अपेक्षा, सादृश्य अस्तित्व की अपेक्षा सत् है; फिर भी प्रत्येक द्रव्य का स्वरूपास्तित्व, उनकी अवान्तर सत्ता भिन्न-भिन्न ही है, एक का दूसरे में अभाव ही है।
यही कारण है कि यहाँ यह कहा गया है कि स्वरूप में प्रवृत्ति और पररूप से व्यावृत्ति अर्थात् स्व की अपेक्षा अस्तित्व और पर की अपेक्षा नास्तित्व - इसप्रकार अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले ये दोनों धर्म प्रत्येक वस्तु में एकसाथ ही रहते हैं; इनके एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है।
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इसके बाद इसी सिद्धान्त को ज्ञानमात्र आत्मद्रव्य पर घटित किया गया है। कहा गया है कि आत्मा का स्वपरप्रकाशक स्वभाव होने से उसमें स्व और पर - दोनों प्रकार के पदार्थ झलकते हैं। परज्ञेयों के साथ आत्मा का अनिवार्य किन्तु सहज ज्ञाता ज्ञेय संबंध है।
अज्ञानी जीव इस वास्तविक स्थिति को तो समझता नहीं और ज्ञान में झलकनेवाले परज्ञेयों के साथ एकत्व-ममत्व स्थापित कर लेता है, उनसे कर्तत्व-भोक्तृत्व जोड़ लेता है। उन ज्ञेयों रूप ही स्वयं को मान स्वयं के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देता है; तब उस ज्ञानमात्र स्वभाव को स्वरूप से तत्पना (अस्तित्व) प्रकाशित करते हुए ज्ञातारूप परिणमन के कारण ज्ञानी बताकर अनेकान्त (स्याद्वाद) ही उसे एकान्तवाद से बचाकर उसका उद्धार करता है ।