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परिशिष्ट
(३-४) यदानेकज्ञेयाकारैः खंडितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं द्योतयन्ननेकांत एव तमुज्जीवयति।
यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकारत्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकांत एव नाशयितुं न ददाति।।
(५-६) यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण सत्त्वं द्योतयन्ननेकांत एव तमुज्जीवयति ।
यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं ज्ञातृद्रव्येन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकांत एव नाशयितुं न ददाति ।
(७-८) यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकांत एव तमुज्जीवयति ।
(३-४) एक-अनेक-एक और अनेक संबंधी तीसरे और चौथे भंग के सन्दर्भ में आत्मख्याति में जो भाव प्रगट किया है। वह इसप्रकार है
जब यह ज्ञानमात्रभाव अनेक ज्ञेयाकारों (ज्ञेय के आकारों) के द्वारा अपना सकल (सम्पूर्णअखण्ड) एक ज्ञानाकार (ज्ञान के आकार) को खण्डित हुआ मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का द्रव्य से एकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता।
और जब यह ज्ञानमात्रभाव एक ज्ञानाकार (ज्ञान के आकार) को ग्रहण करने के लिए अनेक ज्ञेयाकारों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का पर्यायों से अनेकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।
(५-६) स्वद्रव्य-परद्रव्य - स्वद्रव्य और परद्रव्य संबंधी पाँचवें और छठवें भंगों की चर्चा आत्मख्याति में इसप्रकार की गई है -
जब यह ज्ञानमात्रभाव परद्रव्यों के जाननेरूप परिणमन के कारण ज्ञातृद्रव्यरूप अपने आत्मा को परद्रव्यरूप मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव को स्वद्रव्य से सत्त्व (अस्तित्व) प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता।
और जब यह ज्ञानमात्रभाव 'सभी ज्ञेयद्रव्य मैं ही हूँ या सभी द्रव्य आत्मा ही हैं - इसप्रकार परद्रव्य को ज्ञातृद्रव्यरूप से मानकर अपना नाश करता है; तब परद्रव्य से असत्त्व (नास्तित्व) प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।
(७-८) स्वक्षेत्र-परक्षेत्र - स्वक्षेत्र और परक्षेत्र संबंधी सातवें-आठवें भंग की चर्चा आत्मख्याति में इसप्रकार की गई है -
जब यह ज्ञानमात्रभाव परक्षेत्रगत ज्ञेय पदार्थों के परिणमन के कारण परक्षेत्र से ज्ञान को सत् मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का स्वक्षेत्र से अस्तित्व प्रकाशित करता हआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता।