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________________ समयसार बस उसी में ममता धरें द्रवलिंग मोहित अन्धजन ।। देखें नहीं जाने नहीं सुखमय समय के सार को। बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को ।।२४३।। यद्यपि द्रव्यलिंग वस्तुतः अन्य द्रव्यस्वरूप है; मात्र ज्ञानस्वरूपी आत्मा ही निज है; तथापि द्रव्यलिंग के एकत्व-ममत्व के द्वारा बन्द हो गये हैं नेत्र जिनके, ऐसे अज्ञानी जीव समयसाररूप आत्मा को नहीं देखते। उक्त कथन का सार यह है कि शरीरादि की नग्नदशा एवं शुभभावरूप द्रव्यलिंग परद्रव्यरूप होने से आत्मा का धर्म नहीं हैं। उनमें एकत्व-ममत्व करना अज्ञान है, मिथ्यात्व है। द्रव्यलिंग में धर्म माननेवाले ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा को देखने-जानने में असमर्थ हैं। जो बात विगत कलश में कही गई है; अब उसी बात को गाथा द्वारा कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है (हरिगीत) व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे मुक्तीमार्ग में। परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग मुक्तीमार्ग में ।।४१४।। व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंग - दोनों को ही मोक्षमार्ग कहता है; परन्तु निश्चयनय किसी भी लिंग को मोक्षमार्ग नहीं मानता। यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं दृशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति निस्तुषसचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् । ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयंते, ते समयसारमेव न संचेतयंते; य एव परमार्थं परमार्थबुद्ध्या चेतयंते, ते एव समयसारं चेतयंते । इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है - "श्रमण और श्रमणोपासक के भेद से द्रव्यलिंग दो प्रकार का कहा गया है; उसे मोक्षमार्ग बतानेवाला कथन मात्र व्यवहारकथन है, परमार्थ कथन नहीं है; क्योंकि उक्त कथन स्वयं अशुद्धद्रव्य के अनुभवनस्वरूप होने से अपरमार्थ है; उसके परमार्थत्व का अभाव है। श्रमण और श्रमणोपासक के विकल्प से अतिक्रान्त दर्शन-ज्ञानस्वभाव में प्रवृत्त परिणति मात्र शुद्धज्ञान का ही एक निस्तुष (निर्मल) अनुभवन परमार्थ है; क्योंकि वह अनुभवन स्वयं शुद्धद्रव्य का अनुभवनस्वरूप होने से वस्तुत: परमार्थ है। इसलिए जो व्यवहार को ही परमार्थबुद्धि से परमार्थ मानकर अनुभव करते हैं; वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते; किन्तु जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं; वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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