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समयसार
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१२३. मैं स्थावर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२४. मैं बस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२५. मैं सुभग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२६. मैं दुर्भग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२७. मैं सुस्वर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२८. मैं दुःस्वर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हैं, क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१२९. मैं शुभ नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१३०. मैं अशुभ नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
नाहं सूक्ष्मशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३१। नाहं बादरशरीरनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३२॥ नाहं पर्याप्तनामकर्मफलं भुजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३३। नाहमपर्याप्तनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३४। नाहं स्थिरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३५। नाहमस्थिरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३६। नाहमादेयनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३७। नाहमनादेयनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।१३८।
नाहं यश:कीर्तिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१३९। नाहमयश:कीर्तिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१४०। नाहं तीर्थकरत्वनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।१४१। _१३१. मैं सूक्ष्मशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१३२. मैं बादरशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१३३. मैं पर्याप्त नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
१३४. मैं अपर्याप्त नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का