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समयसार ३३. मैं अप्रत्याख्यानावरणीलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।।
३४. मैं प्रत्याख्यानावरणीलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
३५. मैं संज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
३६. मैं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
३७. मैं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेता कस्ता हूँ। ____३८. मैं अरतिनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
३९. मैं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हैं: क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
४०. मैं भयनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। नाहं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४१। नाहं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४२॥ नाहं पुंवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।४३। नाहं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४४।
नाहं नरकायु:कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४५। नाहं तिर्यगायु:कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।४६। नाहं मानुषायुःकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।४७। नाहं देवायुःकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।।८।। ___ नाहं नरकगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये।४९। नाहं तिर्यग्गतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५०। नाहं मनुष्यगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ॥५१॥ नाहं देवगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।५२।
४१. मैं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ। __४२. मैं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
४३. मैं पुरुषवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।
४४. मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ।