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समयसार आत्मा के आश्रय से ही होता है। अत: एक मात्र आत्मा का आश्रय लेना ही उपाय है - यही कारण है कि आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा गया है। अब इसी भाव का पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(रोला) यही ज्ञान अज्ञानभाव से राग-द्वेषमय।
हो जाता पर तत्त्वदृष्टि से वस्तु नहीं ये।। तत्त्वदृष्टि के बल से क्षयकर इन भावों को। हो जाती है अचल सहज यह ज्योति प्रकाशित ।।२१८।।
(शालिनी) रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्ट्या नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात् ।।२१९।।
अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गणप्पाओ।
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जते सहावेण ।।३७२।। इस जगत में ज्ञान ही अज्ञानभाव से राग-द्वेष-मोहरूप परिणमित होता है। वस्तुत्व में एकाग्र दृष्टि से देखने पर वे राग-द्वेष-मोह कुछ भी नहीं हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव उन्हें पूर्णतः क्षय करो कि जिससे पूर्ण अचल प्रकाशवाली ज्ञानज्योति प्रकाशित हो।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि राग-द्वेष की खान अज्ञानभाव ही है। अपने अज्ञानभाव से ही यह आत्मा स्वयं राग-द्वेष परिणामरूप परिणमित होता है। जब वस्तु के मूलस्वरूप की दृष्टि से विचार करते हैं तो यही स्पष्ट होता है कि आत्मस्वभाव में तो ये राग-द्वेष-मोह हैं ही नहीं। यद्यपि वर्तमान पर्याय में इन राग-द्वेषभावों की सत्ता है; तथापि उसे भी ज्ञानीजन सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा तत्त्वदृष्टि के बल से इनका क्षय करके स्वयं स्वयं के सहजस्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं। अब आगामी गाथा के भाव का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला) तत्त्वदृष्टि से राग-द्वेष भावों का भाई।
कर्ता-धर्ता कोई अन्य नहीं हो सकता।। क्योंकि है अत्यन्त प्रगट यह बात जगत में।
द्रव्यों का उत्पाद स्वयं से ही होता है।।२१९।। तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता; क्योंकि सर्वद्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अंतरंग में अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशित होती है।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उसके स्वयं के स्वभाव से ही होता है; अन्य द्रव्यों के कारण नहीं। आत्मा भी एक द्रव्य है; इसलिए उसका परिणमन भी उसके ही द्वारा किया जाना इष्ट है। मोह-राग-द्वेषरूप परिणमन भी आत्मा का ही परिणमन है; अत: वह भी उसके द्वारा ही किया जाना इष्ट है। यही कारण है कि यहाँ यह कहा गया है कि आत्मा