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समयसार उक्त प्रतिक्रमणादि आठ प्रकार का शुभोपयोग विषकुंभ ही है - यह अर्थ है।
कुछ विशेष है, जो इसप्रकार है - अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है - ज्ञानियों के आश्रित अप्रतिक्रमण और अज्ञानियों के आश्रित अप्रतिक्रमण ।
उनमें अज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण तो विषय-कषाय की परिणतिरूप ही होता है; किन्तु ज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण शुद्धात्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान (आचरण) स्वरूप त्रिगुप्तिमय (स्वानुभूतिमय) होता है।
वह ज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण सरागचारित्र लक्षणवाले शभोपयोग की अपेक्षा यद्यपि अप्रतिक्रमण कहा जाता है; तथापि वीतरागचारित्र की अपेक्षा वह अप्रतिक्रमण वस्तुतः निश्चयप्रतिक्रमण ही है।
यदि कोई कहे कि वह अप्रतिक्रमण निश्चयप्रतिक्रमण कैसे है ?
तो उससे कहते हैं कि समस्त शुभाशुभ आस्रवरूप दोषों के निराकरणरूप होने से वह अप्रतिक्रमण निश्चयप्रतिक्रमण ही है। इसलिए यह निश्चय हो गया कि वह स्वानुभवरूप अप्रतिक्रमण ही निश्चयप्रतिक्रमण है।
यद्यपि यह व्यवहार प्रतिक्रमण की अपेक्षा अप्रतिक्रमण शब्द से वाच्य है; तथापि यह ज्ञानिजनों को मोक्ष का कारण बनता है। __शुद्धात्मा को उपादेय मानकर निश्चयप्रतिक्रमण के साधकभाव के रूप में विषय-कषाय से बचने के लिए यदि व्यवहारप्रतिक्रमण किया जाता है तो वह व्यवहारप्रतिक्रमण परम्परा मोक्ष का कारण कहा जाता है; अन्यथा मात्र स्वर्गादिसुख के निमित्तभूत पुण्य का ही कारण है।
और जो अज्ञानियों से संबंधित अप्रतिक्रमण है, वह तो मिथ्यात्व और विषय-कषाय की परिणतिरूप होने से नरकादि दुःखों का ही कारण है।
इसप्रकार प्रतिक्रमणादि आठ विकल्पों रूप शुभोपयोग यद्यपि सविकल्प अवस्था में अमृतकुंभ होता है; तथापि सुख-दुःखादि में समताभाव रखनेरूप - परमोपेक्षारूप संयम की अपेक्षा विषकुंभ ही है।"
यहाँ यह कहा जा रहा है कि गलती करके भी प्रायश्चित्त नहीं करना व्यवहार-अप्रतिक्रमण है और वह विषकुंभ है तथा गलती हो जाने पर प्रायश्चित्त करके उसे सुधार लेना व्यवहारप्रतिक्रमण है और अमृतकुंभ है - आचारशास्त्रों का यह कथन व्यवहारनय का कथन है, जो उचित ही है।
ऐसा कहकर भी यहाँ इस बात पर विशेष ध्यान आकर्षित किया जा रहा है कि गलती करके प्रायश्चित्त करना या नहीं करना - इन दोनों से परे एक स्थिति ऐसी भी है कि जो इन दोनों से परे है, पार है; वह तीसरी स्थिति है - गलती करना ही नहीं, अपराध करना ही नहीं।
शुद्धोपयोग एक ऐसी स्थिति है कि जहाँ शुभाशुभभावरूप अपराध होता ही नहीं है। जब अपराध होता ही नहीं है तो फिर प्रायश्चित्त की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसलिए इसे अप्रतिक्रमण कहते हैं; पर यह अप्रतिक्रमण वह स्थिति नहीं है कि जिसमें अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त नहीं लिया जाता है; क्योंकि वह तो पापरूप ही है और यह अप्रतिक्रमण तो पुण्य-पाप से पार परमधर्मरूप है। इसलिए यह अप्रतिक्रमण ही वस्तुत: निश्चयप्रतिक्रमण है और मुक्ति का