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________________ ४१४ आत्मा की आराधना करना चाहिए । को हि नामायमपराध: ? समयसार संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधिय च एयटुं । अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ।। ३०४।। जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिओ उ सो होइ । आराहणाइ णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो ।। ३०५ ।। संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थम् । अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराध: ।। ३०४।। यः पुनिर्निरपराधश्चेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति । आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन् ।। ३०५ ।। परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मन: सिद्धिः साधनं वा राधः । अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराध: । अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराध:, तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः । स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्ध्यभावाद्बन्धशंकासंभवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । विगत गाथाओं में कहा था कि अपराधी बँधता है और निरपराधी छूटता है। अतः अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि 'अपराध क्या है ?' - इस प्रश्न का उत्तर ही इन ३०४ - ३०५वीं गाथाओं में है; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है । बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ।। ३०४। निरपराध है जो आतमा वह आतमा निःशंक है। 'मैं शुद्ध हूँ' - यह जानता आराधना में रत रहे ।। ३०५ ।। संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित- ये एकार्थवाची हैं। जो आत्मा अपगतराध है अर्थात् राध से रहित है; वह आत्मा अपराध है। और जो आत्मा निरपराध है, वह निःशंक होता है। ऐसा आत्मा ही मैं हूँ - ऐसा जानता हुआ आत्मा सदा आराधना में वर्तता है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - - "परद्रव्य के परिहार से शुद्ध आत्मा की सिद्धि अथवा साधन ही राध है और जो आत्मा अपगतराध है अर्थात् राधरहित है, वह आत्मा अपराध है अथवा जो भाव राधरहित हो, वह भाव अपराध है । उस अपराध में वर्तनेवाला आत्मा सापराध है ।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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