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में ही सार है ।
इन गाथाओं की आत्मख्याति टीका में इन्हीं भावों का पोषक एक कलश आता जो आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप भी है। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( अनुष्टुभ् ) अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः ।
तत्किंचनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् । । १७१ ।।
(दोहा)
निष्फल अध्यवसान में, मोहित हो यह जीव ।
समयसार
सर्वरूप निज को करे, जाने सब निजरूप । । १७१ ।।
इस निष्फल अध्यवसाय से मोहित होता हुआ यह आत्मा अपने को सर्वरूप करता है। ऐसा कुछ भी नहीं, जिस रूप यह अपने को न करता हो ।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि परजीवों में इसका कुछ चलता तो है नहीं; फिर भी न मालूम क्यों यह उनको मारने- बचाने और सुखी - दुःखी करने के निष्फलभाव किया करता है ? गजब की बात तो यह है कि यह अज्ञानी जीव जिसको देखता - जानता है, उन सभी के लक्ष्य से इसप्रकार के भाव किया करता है। जगत में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसे यह निजरूप न करता 1
तात्पर्य यह है कि यह सभी परपदार्थों में एकत्व - ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्व स्थापित करता रहता है। यही इसके अनन्त दुःखों का कारण है।
इसके बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में इसी भाव की पोषक पाँच गाथायें और आती हैं; जो कि आत्मख्याति में नहीं हैं।
वे गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं
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कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।। वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।। मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।। सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।। कायेण च वाया वा मणेण सुहिदे करेमि सत्ते ति । एवं पि हवदि मिच्छा सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ।।