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बंधाधिकार
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परजीवानहंदुःखितान सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः।
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत् - सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपाय॑माणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य सुखदुःखे कुर्यात् । अत: सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रियेचेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।।२५३-२५६।।
(वसन्ततिलका) सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ॥१६८।। यदि सभी जीव कर्म के उदय से सुखी-दुःखी होते हैं और वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं; तो फिर उन्होंने तुझे दुःखी कैसे किया ?
यदि सभी जीव कर्म के उदय से सुखी-दुःखी होते हैं और वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं; तो फिर उन्होंने तुझे सुखी कैसे किया ?
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में अतिसंक्षेप में इसप्रकार व्यक्त किया गया है -
“परजीवों को मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और परजीव मुझे दुःखी तथा सुखी करते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय नियम से अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है, वह जीव अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है, वह जीव ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है।
जीवों के सुख-दुःख वस्तुतः तो अपने कर्मोदय से ही होते हैं: क्योंकि स्वयं के कर्मोदय के अभाव में सुख-दुःख का होना अशक्य है तथा अपना कर्म किसी का किसी को दिया नहीं जा सकता; क्योंकि वह अपने परिणाम से ही उपार्जित होता है। इसलिए किसी भी प्रकार से कोई किसी को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता। इसलिए यह अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है कि मैं परजीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं।" अब इसी भाव के पोषक कलश काव्य लिखते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जीवन-मरण अरदुक्ख-सुखसबप्राणियोंकेसदा ही। अपने करम के उदय के अनुसार ही हों नियम से ।। करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख।
विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है।।१६८।। इस जगत में जीवों के मरण, जीवन, दुःख व सुख सब सदैव नियम से अपने कर्मोदय से होते हैं। कोई दूसरा पुरुष किसी दूसरे पुरुष के जीवन-मरण और सुख-दुःख को करता है -