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________________ १८ - कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत् - वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दुजो भावो । एवं भणति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥६॥ नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः । एवं भांति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चैव ॥ ६ ॥ यो हि नाम स्वतः सिद्धत्वेनानादिरनंतो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबंधपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरंतकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्त्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्त्तकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति । एष एवाशेषद्रव्यांतरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते । ( हरिगीत ) न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है । समयसार इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ॥ ६ ॥ जो एक ज्ञायकभाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है; इसप्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो वही है; अन्य कोई नहीं । आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की जो टीका लिखी है, वह अत्यन्त गम्भीर है और गहराई से मंथन करने की अपेक्षा रखती है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के अनुसार उसका अर्थ और भावार्थ इसप्रकार है - “जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (किसी से उत्पन्न हुआ न होने से ) अनादि सत्तारूप है, कभी विनाश को प्राप्त न होने से अनन्त है, नित्य उद्योतरूप होने से क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है; ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसार की अवस्था में अनादि बंधपर्याय की निरूपणा से (अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्मपुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी, द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाये तो दुरन्त कषायचक्र के उदय की (कषायसमूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश से प्रवर्तमान पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभाशुभ भाव, उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभाव से जड़भावरूप नहीं होता), इसलिए वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नरूप से उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है। और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह स्वरूपप्रकाशन की (स्वरूप को जानने की) अवस्था में भी, दीपक की भाँति, कर्ता-कर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है - स्वयं जाननेवाला है; इसलिए स्वयं कर्ता है और अपने को जाना, इसलिए स्वयं ही कर्म है । (जैसे दीपक घटपटादि को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को अपनी ज्योतिरूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञायक को समझना चाहिए।) -
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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