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समयसार बताकर बंध का कारण बताया गया है और सांसारिक सुख-दुःखों को शरीरसंबंधी अध्यवसान बताकर उपभोग का कारण बताया गया है; क्योंकि बंध के कारण मोह-राग-द्वेष ही हैं, सुख-दुःखादि नहीं।
(स्वागता) ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयैति । रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिर्जुठतीह ।।१४८।। ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यत: स्यात्सर्वरागरसवर्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ।।१४९।। णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण दकहममज्झे जहा कणय ।।२१८॥ अम्मामी पुण स्तो सक्दव्वेसु कम्ममज्झमदो।
लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ।।२१९।। सुख-दुःखादि भोगने तो पड़ते हैं, पर उनके भोगने मात्र से बंध नहीं होता । बंध तो जब मोह-रागद्वेष होते हैं; तभी होता है, मोह-राग-द्वेष से ही होता है। ___ अब इसी भाव के पोषक और आगामी गाथाओं की उत्थानिकारूप कलश काव्य लिखते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जबतक कषायित ना करें सर्वांग फिटकरि आदि से। तबतलक सूती वस्त्र पर सर्वांग रंग चढ़ता नहीं।। बस उसतरह ही रागरस से रिक्त सम्यग्ज्ञानिजन । सब कर्म करते पर परिग्रहभाव को ना प्राप्त हों ।।१४८।। रागरस से रहित ज्ञानी जीव इस भूलोक में।
कर्मस्थ हों पर कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ।।१४९।। जिसप्रकार जो वस्त्र नमक और फिटकरी आदि से कषायला नहीं किया गया हो, उस वस्त्र पर रंग सर्वांग नहीं चढ़ता है, रंग उस वस्त्र के बाहर ही लोटता रहता है; उसीप्रकार रागरस से अकषायित ज्ञानियों के भी कर्म परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होते, बाहर ही लोटते रहते हैं।
क्योंकि ज्ञानी जीव निजरस से सम्पूर्ण रागरस के त्यागरूप स्वभाववाला होता है; इसकारण वह कर्मों के बीच पड़ा हुआ होने पर भी सभी प्रकार के कर्मों से लिप्त नहीं होता।
इसप्रकार इन कलशों में यही कहा गया है कि कर्मों के मध्य में पडे हए भी ज्ञानीजन कर्मों से लिप्त नहीं होते, परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होते।
जो बात विगत कलश में कही गई है, अब वही बात आगामी गाथाओं में कहते हैं।