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निर्जराधिकार
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अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो नाकांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया अभावात् । ततोऽनागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।।२१५।। कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकांक्षतीति चेत् -
जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं । तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि ॥२१६।।
यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयम् ।
तद्ज्ञायकस्तु ज्ञानी उभयमपि न कांक्षति कदापि ।।२१६।। ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः। तत्र यो भाव: कांक्षमाणं
अनागत उपभोग तो वस्तुतः ज्ञानी के वांछित ही नहीं है; क्योंकि ज्ञानी के अज्ञानमयभावरूप वांछा का अभाव है। इसलिए अनागत कर्मोदयजन्य उपभोग ज्ञानी के परिग्रहरूप नहीं है।'
इसप्रकार इस गाथा में सतर्क यही कहा गया है कि ज्ञानी के तीनों काल के भोग परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होते।
विगत गाथा में अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा गया था कि ज्ञानी अनागत (भावी) कर्मोदय के उपभोग की वांछा नहीं करता। अत: अब इस गाथा में उसी बात को युक्ति से सिद्ध कर रहे हैं कि ज्ञानी अनागत कर्मोदय के उपभोग की वांछा क्यों नहीं करता ? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय।
ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे ।।२१६।। वेदन करनेवाला भाव और वेदन में आनेवाला भाव - दोनों ही समय-समय पर नष्ट हो जाते हैं। इसप्रकार जाननेवाला ज्ञानी उन दोनों भावों को कभी भी नहीं चाहता।
वेदन करनेवाले भाव को वेदकभाव कहते हैं और जिस भाव का वेदन किया जाता है, उसे वेद्यभाव कहा जाता है। ये दोनों ही भाव उत्पन्न होते ही एक समय में नाश को प्राप्त हो जाते हैं; इसकारण इनका मेल बैठना सम्भव नहीं होता; क्योंकि जब जीव किसी पदार्थ को भोगने का भाव करता है, तब वह पदार्थ उपलब्ध नहीं होता और जब वह पदार्थ उपलब्ध होता है, तबतक जीव को उसे भोगने का भाव समाप्त हो जाता है। इसप्रकार विनाशशील होने से वेद्य-वेदक भाव का मेल नहीं बैठता। यही कारण है कि ज्ञानी इन दोनों भावों की ही कामना नहीं करता।
इसी बात को आचार्य अमतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार सतर्क सिद्ध करते हैं -