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निर्जराधिकार
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वमन कर डाला है, ऐसा ज्ञानी सर्वत्र अत्यन्त निरालम्ब होकर नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावरूप रहता हुआ साक्षात् विज्ञानघन आत्मा का अनुभव करता है ।" ( स्वागता )
पूर्वबद्धकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम् ।। १४६ ।।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि ज्ञानी पुण्य-पाप, खान-पान, आकाशादि द्रव्यों और रागादिभावों को अपना नहीं जानता, अपना नहीं मानता और उनरूप परिणमित भी नहीं होता; इसकारण उसे इनका परिग्रह नहीं है।
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ गाथा में समागत धर्म और अधर्म पदों का अर्थ यहाँ धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य न करके पुण्य और पाप किया गया है।
आत्मख्याति में समागत २११वीं गाथा के बाद एक गाथा आचार्य जयसेन की टीका में आई है, जो आत्मख्याति में नहीं है, वह गाथा इसप्रकार है
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धम्मच्छि अधम्मच्छि आयासं सुत्तमंगपुव्वेसु । संगं च तहा णेयं देवमणुअत्तिरियणेरइयं । ।
( हरिगीत )
आकाश धर्माधर्म ग्यारह अंग चौदह पूर्व अर । तिर्यंच नर अर देव नारक ज्ञानियों के ज्ञेय हैं ।।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के सूत्र तथा देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकादि पर्यायें एवं सभी प्रकार के परिग्रह- ये सब ज्ञेय हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी इन ज्ञेयों की इच्छा नहीं करता, इनका मात्र ज्ञायक ही रहता है।
जो बात २१० एवं २११वीं गाथा में पुण्य और पाप के संबंध में कही गई है, वही बात इस गाथा में धर्मद्रव्यादि के बारे में कही गई है।
अब इन गाथाओं में समागत भाव का पोषक कलश काव्य कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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(दोहा)
होंय कर्म के उदय से, ज्ञानी के जो भोग ।
परिग्रहत्व पावे नहीं, क्योंकि रागवियोग । । १४६ ।।
पहले बँधे कर्मों के उदय के कारण यदि ज्ञानी के उपभोग हो तो हो; परन्तु राग के वियोग के कारण वे भोग उसके लिए परिग्रहत्व को प्राप्त नहीं होते । तात्पर्य यह है कि बंध तो आत्मा